मैं संविधान हूँ
लाल किले के कंगूरे पर खड़ा होकर बोलता हूँ
तब मुझे मेरे शब्द ही एक आत्मघाती बाण से लगते हैं
राष्ट्रपति की जब मैं पहली आवाज बनता हूँ
पर कहीं कच्ची बस्तियों की जलती झोपड़ियों में दब जाता हूँ
मैं उठता हूँ जब भारतीय बनकर सुबह
मैं साँझ ढलने तक हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई बन जाता हूँ
मैं भीमराव की संसद हूँ
जिसको लगाता है हर कोई माथे पर मैं वो चन्दन हूँ
पर आज मैं पीड़ा में हूँ
मेरी समानता आज बट गयी
चंद नोटों में वोटों की रीत पट गयी है
मैं खुद पर अब हास्य व्यंग्य हूँ
मेरा कानून अब नोट में दबा पड़ा है ओर मैं दंग हूँ
मैं संविधान
ससंद में पड़ा हुआ धूमिल हो रहा हूँ
पर मुझे यकीन है उन नौजवानों से
जो अब मुझे सीने से लगाए घूमते हैं
कि एक दिन तुम फिर मुझे वही सम्मान दोगे
मेरे अंतर्मन में जो घाव लगे हैं वो तुम भरोगे
फिर से तुम मुझे न्याय की चौखट का पहरेदार बनाकर
मेरे पन्नों पर लिखे गए न्याय के अभिलेखों से
तुम फिर न्याय करोगे
मैं संविधान हूँ…