‘Sardiyon Mein Tum’, a poem by Ankit Kumar Bhagat
तुम मेरे लिए सर्दियों की
सुगबुगाहट जैसी हो।
शरद पूर्णिमा के धवल चंद्र से..
बसंत पंचमी की सरसराती हवाओं तक,
फगुआ में पीलेपन के
अनंत विस्तार पाने तक…
और उसके परे भी,
मेरे नज़रिए का मौसम हो तुम।
बीजों के अंकुरण का स्वभाव,
गेंदे का गाढ़ा हो जाना..
तुम्हारे होने का ही है एहसास।
चीरा-मीरा की ख़ुशी,
हरसिंगार का उतावलापन
और आसमान का सतरंगी पुलोवर…
सब लिए हैं,
तुम्हारी मुस्कान के किस्त।
तुम मेरे लिए नयी रोशनी हो,
धरती और सूरज के दरम्यान
जैसे संवाद की एक डोर,
बीच जैसे गुलाबी फ़िजाओं के
शीत पवन पर सवार
सुकून की धूप हो।
हड्डियों में समाती सर्दी के बीच,
हो जैसे अंगीठी में सुलगती आग।
बाद घोर निराशा के
उम्मीदों की दस्तक हो जैसे…,
धान की सुनहली बालियों-सी
मेरे हिस्से का उत्सव हो तुम!
धुएं में लिपटी
रुआंसी सांझ की स्मृति…
कसक है तुम्हारे बीत जाने का।
तुम्हारी उदासी का परिचायक है
रात्रि का गहराता सन्नाटा।
मुझे संदेह है…
सर्दियां तुमसे पहले भी थी!
और तसल्ली की वादी की रंगीनियाँ
‘तुम’ से ‘तुम’ तक ही रहेंगी,
सिर्फ़ ‘मुझसे’ गुज़रकर।
तुम मेरे लिए
ज़िन्दगी की आहट सी हो…!
तुम मेरे लिए सर्दियों की
सुगबुगाहट जैसी हो।