जूता, मोजा, दस्ताने, स्वेटर और कोट- ये सब चीज़ें कपड़ों की किसी अलमारी से नहीं, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के कविता संग्रह ‘खूटियों पर टंगे लोग’ के पन्नों से झाँक रही हैं। अच्छे बाल साहित्य को किसी भी समाज के उज्जवल भविष्य की नींव मानने वाले सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की इस किताब को जब हमने पढ़ना शुरू किया था तो प्रस्तावना में दी गयी पंक्तियाँ ही काफी थीं हमें यह किताब जल्दी से पढ़ने को मजबूर करने के लिए..

“खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी?
सोचता, उसका नहीं
यह खूँटियों का दोष है।”

फिर इंडेक्स देखा तो वहां भी वही हाल। आपको कुछ कविताओं के शीर्षक बताए देते हैं जिससे आप हमारी बात समझ पाएँ- ‘जूता’, ‘मोजा’, ‘दस्ताने’, ‘स्वेटर’, ‘कोट’, ‘चश्मा’, ‘टपरा’, ‘रेंगती उंगलियां’, ‘पहाड़ों को मेरे ऊपर गिरने दो’, ‘अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा’..

khootiyon par tange log

साधारण से दिखने वाले कवर की इस किताब की कोई भी कविता मुश्किल ही साधारण रही होगी। उन्हीं कविताओं में से कुछ पांच कविताएँ/कविताओं के अंश आपके लिए प्रस्तुत हैं, वक़्त देकर पढ़िएगा तो बेहतर तरीक से समझ पाएंगे।

इन पाँचों कविताओं के शीर्षक किसी न किसी कपड़े या पहनने की वस्तु पर हैं। कपड़े जो हम तन छिपाने के लिए पहनते हैं, उसमें सर्वेश्वर ने कहीं कुछ घर छिपाये हैं तो कहीं कुछ रास्ते जिनमें से होकर कोई अपनी सारी विवशताओं से दूर निकल जाना चाहता है। कहीं कोई याद डेरा जमाए बैठी है तो कहीं एक विद्रोह अपने ऊपर सामाजिक विडंबनाओं का मलबा लिए दबा बैठा है। साधारण चीज़ों में मानव जीवन के जटिल पेहलूओं को ढला हुआ देखना हमारे लिए सर्वथा नयी बात थी। शायद आपके लिए भी हो.. पढ़िए!

जूता

मेरा जूता
जगह-जगह से फट गया है
धरती चुभ रही है
मैं रुक गया हूँ
जूते से पूछता हूँ –
‘आगे क्यों नहीं चलते?’
जूता पलटकर जवाब देता है-
‘मैं अब भी तैयार हूँ
यदि तुम चलो!’
मैं चुप रह जाता हूँ
कैसे कहूँ कि मैं भी
जगह-जगह से फट गया हूँ।

मोजा

मोजे की तरह मैं
एक जूते में पड़ा हूँ।

सबसे पहले मैं उन पैरों से लिपटा था
जूता तो बाद में बांधा गया।
मेरी आँखों में तो उसकी पट्टी बंधी थी
मैं नहीं जानता कहाँ-कहाँ
उन पैरों के साथ मैं गया
ज़मीन की रगड़ कैसी थी
रास्तों में कांटे थे या कीचड़
मैं नहीं जानता।
मैं तो एक अस्था से लिपटा था
इतना ही मेरा अस्तित्व है
यही मानता रहा।

दस्ताने

अब बहुत देर हो चुकी है
कुछ नहीं हो सकता।
तुम मेरे हाथ काट भी दो
तो भी ये दस्ताने उड़कर
तुम्हारा गला दबा देंगे।
उँगलियों का इतना गुस्सा
इनमें पैबस्त हो गया है
तुम्हारे बचने का अब कोई उपाय नहीं।
सारे कटे हुए हाथों के
पहाड़ पर भी यदि तुम चढ़ जाओ
तो आकाश में दस्ताने ही दस्ताने मँडरायेंगे।
तुम्हारी गर्दन उनकी पकड़ में होगी
चाहे तुम उसे कितनी ही मोटी करते जाओ
वह कच्चे सूूूत की तरह
तोड़ दी जाएगी।

हाथ और दस्ताने का
रिश्ता ही ऐसा है।

स्वेटर 

तुमने जो स्वेटर
मुझे बुनकर दिया है
उसमें कितने घर हैं
यह मैं नहीं जानता,
न ही यह
कि हर घर में तुम कितनी
और किस तरह बैठी हो,
रोशनी आने
और धुआँ निकलने के रास्ते
तुमने छोड़े हैं या नहीं,
सिर्फ़ यह जानता हूँ
कि मेरी एक धड़कन है
और उसके ऊपर चन्द पसलियाँ हैं
और उनसे चिपके
घर ही घर हैं
तुम्हारे रचे घर
मेरे न हो कर भी मेरे लिए.
अब इसे पहनकर
बाहर की बर्फ़ में
मैं निकल जाऊँगा.
गुर्राती कटखनी हवाओं को
मेरी पसलियों तक आने से
रोकने के लिए
तुम्हारे ये घर
कितनी किले बन्दी कर सकेंगे
यह मैं नही जानता,
इतना ज़रूर जानता हूँ
कि उनके नीचे बेचैन
मेरी धड़कनों के साथ
उनका सीधा टकराव शुरू हो गया है.

मानता हूँ
जहाँ पसलियाँ अड़ाऊँगा
वहाँ ये मेरे साथ होंगे
लेकिन जहाँ मात खाऊँगा
वहाँ इन धड़कनों के साथ कौन होगा?
सदियों से
हर एक
एक दूसरे के लिए
ऐसे ही घर रचता रहा है
जो पसलियों के नीचे के लिए नहीं होते!
इससे अच्छा था
तुम प्यार भरी दृष्टि
मशाल की तरह
इन धड़कनों के पास गड़ा देतीं
कम—से—कम उनसे
मैं शत्रुओं का सही— सही
चेहरा तो पहचान लेता
गुर्राती हवाओं के दाँत
कितने नुकीले हैं जान लेता
अब तो जब मैं
तूफ़ानों से लड़ता—जूझता
औंधे मुँह गिर पड़ूँगा
तो आँखों की बुझती रोशनी में
तुम्हारी सिलाइयाँ
नंगे पेड़ों—सी दीखेंगी
जिन पर न कोई पत्ता होगा न पक्षी
जो धीरे—धीरे बर्फ़ से इस कदर सफ़ेद हो जायेंगी
जैसे लाश गाड़ी में शव ले जाने वाले.
इसके बाद
तूफ़ान खत्म हो जाने पर
शायद तुम मेरी खोज में आओ
और मेरी लाश को
पसलियों पर चिपके अपने घरों के सहारे
पहचान लो
और खुश होओ कि तुमने
मेरी पहचान बनाने में
मदद की है
और दूसरा स्वेटर बुनने लगो.

कोट

खूँटी पर कोट की तरह
एक अरसे से मैं टँगा हूँ
कहाँ चला गया
मुझे पहन कर सार्थक करने वाला?
धूल पर धूल
इस कदर जमती जा रही है
कि अब मैं खुद
अपना रंग भूल गया हूँ.
लटकी हैं बाहें
और सिकुड़ी है छाती
उनसे जुड़ा एक ताप
एक सम्पूर्ण तन होने का अहसास
मेरी रगों में अब नहीं है.
खुली खिड़की से देखता रहता हूँ मैं
बाहर एक पेड़
रंग बदलता
चिड़ियों से झनझनाता
और हवा में झूमता
मैं भी हिलता हूँ
बस हिलता हूँ
दीवार से रगड़ खाते रहने के लिए.
एक अरसा हुआ
हाँ, एक लम्बा अरसा
जब उसने चुपचाप दरवाजा बन्द किया
और बिना मेरी ओर देखे, कुछ बोले
बाहर भारी कदम रखता चला गया—
‘अब तुम मुक्त हो
अकेले कमरे में मुक्त
किसी की शोभा या रक्षा
बनने से मुक्त
सर्दी, गर्मी, बरसात, बर्फ़,
झेलने से मुक्त
दूसरों के लिए की जाने वाली
हर यात्रा से मुक्त
अपनी जेब और अपनी बटन के
अपने कालर और अपनी आस्तीन के
आप मालिक
अब तुम मुक्त हो, आजाद—
पूरी तरह आजाद—अपने लिए.’

खूँटी पर एक अरसे से टँगा
कमरे की खामोशी का यह गीत
मैं हर लम्हा सुनता हूँ
और एक ऐसी कैद का अनुभव
करते—करते संज्ञाहीन होता जा रहा हूँ
जो सलीब् अपनी कीलों से लिखती है.
मुझे यह मुक्ति नहीं चाहिए.
अपने लिए आजाद हो जाने से बेहतर है
अपनों के लिए गुलाम बने रहना.

मुझे एक सीना चाहिए
दो सुडौल बाँहें
जिनसे अपने सीने और बाँहों को जोड़ कर
मैं सार्थक हो सकूँ
बाहर निकल सकूँ
अपनी और उसकी इच्छा को एक कर सकूँ
एक ही लड़ाई लड़ सकूँ
और पैबन्द और थिगलियों को अंगीकार करता
एक दिन जर्जर होकर
समाप्त हो सकूँ.

उसकी हर चोट मेरी हो
उसका हर घाव पहले मैं झेलूँ
उसका हर संघर्ष मेरा हो
मैं उसके लिए होऊँ
इतना ही मेरा होना हो.

खूँटी पर एक अरसे से टँगे—टँगे
मैं कोट से
अपना कफ़न बनता जा रहा हूँ.
कहाँ हैं काली आँधियाँ?
सब कुछ तहस—नहस कर देने वाले
भूकम्प कहाँ हैं?
मैँ इस दीवार, इस खूँटी से
मुक्त होना चाहता हूँ
और तेज आँधियों में उड़ता हुआ
अपनी बाँहें उठाये
सीना चौड़ा किये
उसे खिजना चाहता हूँ—
जो चुपचाप दरवाजा बन्द कर
बिना मेरी ओर देखे और कुछ बोले
बाहर भारी कदम रखता हुआ चला गया.

मैं जानता हूँ
उसे कोई बुला रहा था.
उसे कुछ चाहिए था.
उसे एक बड़ी आँधी और भूकम्प
लाने वाली ताकतों की खोज करनी थी
उसे यहाँ से जाना ही था.
लेकिन कहाँ?
मैं उसके साथ जाना चाहता था.
एक अरसे से खूँटी पर टँगे—टँगे
मैं भी
एक काली आँधी
एक बड़े भूकम्प की ज़रूरत
महसूस करने लगा हूँ.
क्या वह भी
मेरी तरह
किसी खूँटी पर टँगे—टँगे थक गया था?
कोट था?

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