‘भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से
जून, 1928 ‘किरती’ में इन दो विषयों पर टिप्पणियाँ छपीं। भगतसिंह ‘किरती’ के सम्पादक मण्डल में थे। उस समय उनके विचारों की झलक इनसे मिल सकती है। — स.
सत्याग्रह
1928 में हिन्दुस्तान में फिर प्राण धड़कते नज़र आने लगे हैं। एक ओर हड़तालों का ज़ोर है और दूसरी ओर सत्याग्रह की तैयारियाँ शुरू हो रही हैं। ये लक्षण बड़े अच्छे हैं। सबसे बड़ा सत्याग्रह बारदोली (गुजरात प्रान्त) के किसान कर रहे हैं। तीस सालों के बाद नया बन्दोबस्त किया जाता है और हर बार ज़मीन का लगान बढ़ा दिया जाता है। इसी तरह इस बार भी बन्दोबस्त हुआ और मामला बढ़ा दिया गया। लोग बेचारे क्या करें? ग़रीब किसान तो पहले ही पेट भरकर रोटी नहीं खा सकते और वे पहले से 22 प्रतिशत लगान कहाँ से दें। सत्याग्रह की तैयारियाँ की गयीं। महात्मा गाँधी ने लाट पंजाब के साथ पत्र-व्यवहार कर लगान कम करवाने का यत्न किया था, लेकिन जनाब, सिर्फ़ पत्र-व्यवहार से सिर झुकाने वाली सरकार यह नहीं है। कुछ असर न हुआ। सत्याग्रह करना ही पड़ा। गुजरात में पहले भी किसान एक-दो बार बड़ा भारी सत्याग्रह करके सरकार को हरा चुके हैं। पहले-पहल 1917-18 में बारिश अधिक होने से फ़सलें ख़राब हो गयी थीं और रुपये में चार आना भी नहीं हुईं। क़ानून यह था कि रुपये में छह आने से कम फ़सल होने से उस साल लगान न लिया जाए, अगले वर्ष एक साथ ले लिया जाए। उस साल लोगों ने जब कहा कि चार आने भी फ़सल नहीं हुई तो सरकार नहीं मानी। फिर महात्मा गाँधीजी ने काम हाथ में ले लिया। एक सभा की। लोगों को बताया कि यदि आप लगान देने से इंकार करोगे तो आपकी जायदाद ज़ब्त हो जाएगी, क्या आप तैयार हैं? लोग चुपचाप बैठे रहे तो बम्बई के सत्याग्रही नेता इस बात पर बड़े नाराज़ हुए और चल दिए। लेकिन फिर एक बुड्ढा किसान उठा और उसने कहा कि हम सबकुछ सहन करेंगे और बाद में सभी लोग यही कहने लगे। सत्याग्रह शुरू हुआ। सरकार ने भी जायदाद और ज़मीनें ज़ब्त करना शुरू कर दिया, लेकिन दो महीने बाद सरकार ने सिर झुका दिया और ज़मींदारों (?) की शर्त मान ली।
दूसरी बार जब महात्मा जी 1923-24 में जेल में थे तब सत्याग्रह हुआ। पहली बार 600 गाँवों ने हिस्सा लिया था। इस बार 94 गाँवों का लगान बढ़ाया और इन गाँवों ने सत्याग्रह किया। उन पर ताज़ीरी टैक्स लगाया गया था। वहाँ नियम था कि सूर्यास्त होने पर जायदाद कुर्क नहीं हो सकती थी और किसान सवेरे ही अपने-अपने घरों को ताले लगाकर चले जाते और पुलिस को कोई गवाह तक न मिलता। अधिक तंग आकर सरकार ने टैक्स वापस ले लिया। इस बार बारदोली में सत्याग्रह शुरू हुआ है। बारदोली में 1921-22 में आज़ादी के लिए बड़ा भारी सत्याग्रह करने की तैयारियाँ की गयी थीं। सब क़िस्मत के खेल! बना-बनाया खेल बिगड़ गया। ख़ैर, उन पिछली बातों का क्या करना। अब उस इलाक़े का बन्दोबस्त सरकार ने किया। बेचारे किसानों की मुसीबत, अच्छा बन्दोबस्त हुआ, 22 प्रतिशत लगान बढ़ गया! बहुत कहा गया लेकिन सरकार कब मानती है। श्री वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में काम शुरू हो गया और किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। अब ज़ब्ती अधिकारी और सारे ही अफ़सर बारदोली ताल्लुके की ओर इकट्ठा हुए हैं। जो उनसे हो सकता है, लोगों को ग़लत रास्ते पर डालने के लिए कर रहे हैं। जायदाद ज़ब्त की जा रही है, ज़मीनें ज़ब्त करने के हुक्म जारी हो रहे हैं। लेकिन माल, सामान उठाने के लिए आदमी नहीं मिलते। इस समय काम वहाँ ज़ोरों पर है, लेकिन एक मज़े की बात यह है कि सारा काम बड़ी शान्ति से हो रहा है। वे अफ़सर जो लोगों को तंग करने आए थे, उनके साथ बड़े प्यार का व्यवहार किया जाता है। पहले उन्हें रोटी-पानी नहीं मिलता था, अब पटेल ने कहा कि उन्हें रोटी-पानी ज़रूर दे दिया करो। एक दिन शराब की दुकान से चार टिन कुर्क किए गए, लेकिन उठाने वाला कोई न मिला। जब अधिकारी ने कहा, ‘बड़ी प्यास लगी है, पानी तो दो’, तो झट एक सेवादार सत्याग्रही ने सोडे की बोतल लाकर पिलायी। इस तरह काम बड़े ज़ोरों से, पूरी शान्ति से चल रहा है। बड़ी उम्मीद है कि सरकार को अधिक झुकना पड़ेगा।
दूसरी जगह कानपुर है जहाँ सत्याग्रह होने वाला है। पिछले दिनों कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। बाद में ताज़ीरी पुलिस बिठायी गयी। कुछ दिन हुए कि कानपुर के कौंसिल सदस्य श्री गणेशशंकर जी विद्यार्थी सम्पादक ‘प्रताप’, कानपुर को एक पत्र मजिस्ट्रेट से मिला कि अपने दफ़्तर के सभी कर्मचारियों की सूची और उनका वेतन या पद लिखकर भेजें, क्योंकि तारी ताज़ीरी टैक्स वसूल किया जाना है। लेकिन विद्यार्थी जी ने लिख भेजा कि मैं कोई टैक्स देने को तैयार नहीं हूँ और न ही इस काम में कोई सहायता ही करूँगा, क्योंकि दंगा पुलिस ने करवाया था। हमें उसका दण्ड नहीं मिलना चाहिए। लोगों ने विद्यार्थी जी से पूछा कि हम क्या करें? आपने कहा कि मुसीबत आएगी, नुक़सान अधिक होगा, लेकिन यह अत्याचारी टैक्स नहीं देना चाहिए। जलसे हुए। 7000 व्यक्तियों ने टैक्स न देने के काग़ज़ों पर हस्ताक्षर कर सरकार को भेज दिए। तैयारियाँ हो रही हैं।
तीसरी जगह मेरठ है। वहाँ भी बन्दोबस्त हुआ और लगान बढ़ गया। वहाँ भी सत्याग्रह की घोषणा कर दी गयी है।
पंजाब में भी कुछ ऐसी ही बातें नज़र आ रही हैं। शेखूपुर और लाहौर ज़िलों में ओले गिरने से फ़सलें नष्ट हो गयी थीं। अनाज कुछ भी नहीं हुआ, फिर लगान कैसे दिया जाए? लेकिन यहाँ के सयाने-सयाने आदमी और ही तरह की बातें करते हैं— “कांग्रेस के ‘बदनाम’ आदमी उन किसानों में भाषण न दें, कहीं सरकार नाराज़ न हो जाए!” ऐसी-ऐसी बातें हो रही हैं, लेकिन उन्हें अच्छी तरह याद रखना चाहिए कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अंग्रेज़ पैसे के पीर और उम्मीद यह की जाए कि वे लगान अपने आप माफ़ कर देंगे। यह भ्रम अभी कब तक चलेगा?
हड़तालें
उधर सत्याग्रह की धूम है और इधर हड़तालों का भी कुछ कम ज़ोर नहीं। बड़ी ख़ुशी इस बात की है कि देश में फिर प्राण जगे हैं और पहले-पहल ही किसानों और श्रमिकों का युद्ध छिड़ा है। इस बात का भी आने वाले बड़े भारी आन्दोलन पर असर रहेगा। वास्तव में तो यही लोग हैं कि जिन्हें आज़ादी की ज़रूरत है। किसान और मज़दूर रोटी चाहते हैं और उनकी रोटी का सवाल तब तक हल नहीं हो सकता जब तक यहाँ पूर्ण आज़ादी न मिल जाए। वे गोलमेज़ कॉन्फ़्रेंस या अन्य ऐसी किसी बात पर रुक नहीं सकते। ख़ैर।
आजकल लिलुआ रेलवे वर्कशाप, टाटा की जमशेदपुर मिलों, जमशेदपुर शहर के भंगियों और बम्बई की कपड़ा-मिलों में हड़ताल हो गयी है। वास्तव में तो मोटी-मोटी शिकायतें सबकी एक-सी होती हैं। वेतन कम, काम ज़्यादा और व्यवहार बुरा। इस स्थिति में ग़रीब मज़दूर जैसे-तैसे गुज़ारा करते हैं, लेकिन आख़िर असहनीय हो जाता है। आज बम्बई में डेढ़-दो लाख व्यक्ति हड़ताल किए बैठे हैं। सिर्फ़ एक मिल चलती है। बात यह कि नये हथकरघे आए हैं, जिनमें एक आदमी को दो हथकरघों पर काम करना पड़ता है और मेहनत ज़्यादा करनी पड़ती है। यही काम करने वालों का वेतन ख़ासतौर से बढ़ाने, बाक़ी आम मज़दूरों का वेतन बढ़ाने और 8 घण्टे से अधिक काम न ले सकने और कुछ व्यवहार सम्बन्धी शर्ते पेश की गयी हैं। इस समय हड़ताल का बड़ा ज़ोर है। जमशेदपुर मिल के श्रमिकों की भी कुछ ऐसी ही माँगें हैं। वहाँ भी हड़ताल बढ़ती जा रही है। भंगी अपनी हड़ताल किए हुए हैं और शहर की नाक में दम हुआ है। सबसे अधिक सेवा करने वाले भाइयों को हम भंगी-भंगी कहकर पास न फटकने दें और उनकी ग़रीबी का लाभ उठाकर थोड़े-से पैसे देकर काम कराते रहें और बेगार भी ख़ूब घसीटें। ख़ूब! आख़िर उन्हें भी उठना ही था। वे तो लोगों को, विशेषतः शहरों में, दो दिन में सीधे रास्ते पर ला सकते हैं। उनका उठना बड़ी ख़ुशी की बात है। लिलुआ वर्कशाप से कुछ आदमी निकाल दिए गए थे और वेतन के भी कुछ झंझट थे, इसलिए हड़ताल हो गयी। बाद में एलान हो गया कि कई हज़ार व्यक्तियों का काम बिल्कुल ही बन्द कर दिया जाएगा और हड़ताल ख़त्म होने पर भी उन्हें काम में नहीं लिया जाएगा। इससे बड़ी सनसनी फैली। लेकिन हड़ताल ज़ोरों पर है। श्री स्प्रैट आदि सज्जन ख़ूब काम कर रहे हैं। लोगों को चाहिए कि वे उनकी हर तरह से सहायता करें और उनकी हड़ताल तुड़वाने की जो तैयारी हो रही है, वह बन्द करायी जाएँ। हम चाहते हैं कि सभी किसान और मज़दूर संगठित हों और अपने अधिकारों के लिए यत्न करें।
भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ'