कितना कुछ सीख सकती थी मैं
तुम्हारी पूर्व प्रेमिकाओं से…
तुम्हारी पहली प्रेमिका ‘मातृभाषा’ थी
तुमने उसे जब-जब पुकारा
जब-जब तुम्हें मिली पीड़ा
इस बात को जानते हुए
कि हर बड़े अवसर पर उसे
तुमने नज़रअन्दाज़ किया।

तुम्हारी दूसरी प्रेमिका
‘चम्बल’ थी
जो तुम्हारे घर के समीप बहती थी
बिना किसी पाप-पुण्य के हेर-फेर के
उसने बस तुम्हें देना सीखा
इस बात को जानते हुए
कि ईश्वर के आह्वान पर
तुम उसे पुकारोगे भी नहीं।

तुम्हारी तीसरी प्रेमिका
तुम्हारी ‘माँ’ थी
जिसके माथे के चुम्बन ने
तुम्हारे दुःख को सुख में
परिवर्तित कर दिया
इस बात को जानते हुए
कि क्षणिक सुखों से
उसका मूल्य नहीं चुका पाओगे।

अगर मैं भाषा, माँ और नदी
इनसे रत्ती-भर भी सीख पाऊँ
तो मैं ज़रूर सीखना चाहूँगी कि
विपरीत परिस्थितियों में भी
प्रेम को जीवित कैसे रखा जा सकता है!

'अवसाद के लिए दुनिया में कितनी जगह थी पर उसने चुनी मेरे भीतर की रिक्तता'

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