स्वाति बूँद से तृप्त सीप-स्वर में निलय बोला, “अरी त्वरा! तू समुन्दर के इस रेत को देख रही है ना, तू बिल्कुल ऐसी ही है- अगढ़, निर्भय, बावली सी… रेत जैसी।”
“और तूने अपनी मुट्ठी में कर लिया है मुझे…” उल्लास से अनुप्राणित थी त्वरा।
निलय- “ये गलती मैं कैसे कर सकता हूँ, रेत को मुट्ठी में कौन बाँध सका है भला? मैंने तो दिल की पोटली में रखा है तुझे।”
त्वरा- “ना रे निलय!… तू तो सीमेन्ट है, अपने प्रणय के नीर से मुझे अपने साथ अनुस्यूत कर चट्टान सरीखा कर दिया है हमारे रिश्ते को तूने। हमारा मिलन ‘शैल-योग’ है, महज संयोग नही।”
जलनिधि की उठती-गिरती तरंगे… तथा किनारे पड़े एक चट्टान पर बैठा हुआ यह जोड़ा प्रेम के नए बिम्ब रच रहा था।