किताब: शर्मिष्ठा – कुरु वंश की आदि विद्रोहिणी
लेखिका: अणुशक्ति सिंह
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
टिप्पणी: देवेश पथ सारिया
इंटरनेट ने पढ़ने के नये विकल्प खोले हैं। मेरे जैसे हिन्दी-भाषी जो भारत से दूर रहते हैं एवं जिनके पास पुस्तक की हार्डकॉपी पढ़ने की सुविधा नहीं है, उन्हें इंटरनेट अपनी भाषा के साहित्य से जोड़े रखता है। हालाँकि इंटरनेट पर माध्यम का चुनाव सावधानी से करना चाहिए ताकि व्यर्थ एवं लो-ग्रेड किताबें पढ़ने से बचा जाए। एक बार मेरे एक कवि मित्र ने कहा था कि समय बहुत कम है और पढ़ने को इतना कुछ। समय हमेशा कम ही होता है। बहरहाल, इन दिनों ऑडिओबुक्स की कुछ ऐप्स भी आयी हैं। इन्हीं में से एक पर बीते दिनों अणुशक्ति सिंह का उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ सुना। स्लिप-डिस्क की समस्या के कारण इन दिनों सुनने को तरजीह दे रहा हूँ। ऑडिओबुक का यह फ़ायदा है पर एक हानि यह भी है कि आप अपने मनपसंद प्रसंगों को रेखांकित करके नहीं रख सकते जो पुस्तक में सम्भव होता है।
कौरवों और पांडवों के पूर्वज युग की मनस्विनी शर्मिष्ठा के जीवन संघर्ष को ‘शर्मिष्ठा’ में दिखाया गया है। बहुत-सी घटनाएँ, पात्र और पहलू जिनकी जानकारी अब तक मुझे एकतरफ़ा तौर पर रही, उनकी अंदरूनी तहें इस किताब में खुलती हैं। जैसे, नहुष के सर्प योनि प्राप्त करने को लेकर यहाँ लेखिका एक दूसरी दृष्टि प्रदान करती हैं। कुछ पौराणिक सन्दर्भ जो ऊपरी तौर पर पढ़ने में अतार्किक लगते हैं, उन्हें यहाँ लेखिका ने एक धारा रेखीय प्रवाह प्रदान किया है।
इस किताब का प्रमुख स्वर तार्किक स्त्रीवाद है। अणुशक्ति फ़ेमिनिस्ट के तौर पर जानी जाती हैं। फ़ेमिनिस्ट आन्दोलन ज़रूरी है, पर उसमें विचारधारा के सही मार्ग का अनुपालन बहुत मुश्किल काम है। अणुशक्ति यह सन्तुलन बहुत अच्छे तौर पर इस पुस्तक में बिठाती हैं।
याद करिए रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविता पंक्तियाँ— “राजा किसी का नहीं होता”। शर्मिष्ठा के दृष्टिकोण से देखें तो उसके जीवन के दोनों ही राजा (पिता और प्रेमी) उसके जीवन में दुःख का कारण बने। दुःख से बचा सकने की सामर्थ्य होते हुए भी अकर्मण्य बने रहना भी दुःख का कारण होना ही है। वह दौर ऐसा था कि स्त्रियाँ कुल और वंश की मर्यादा के चलते सारा अज़ाब अपने सिर ले लेती थीं। वैसे अब भी दौर कौन-सा पूरी तरह बदल गया है?
लेखिका ने एक ही घटनाक्रम को अलग-अलग पात्रों के नज़रिए से दिखाया है और यह पाठक की समझ पर छोड़ा है कि वह किसे सही मानता है। सब पढ़ने के बाद और स्वयं से तमाम जिरह करने के बाद मुझे लगा ग़लत तो देवयानी ही थी। शर्मिष्ठा देवयानी की ‘पंचिंग बैग’ जैसी नज़र आती है। स्त्रियों की दुर्गति के लिए पुरुषों के अतिरिक्त स्त्रियों की भी जो भूमिका है, वह आज से नहीं है।
यदि देवयानी का दोषी कोई था तो वह थी देवगणों की चाल जिसे क्रियान्वित करने हेतु बृहस्पति पुत्र को शुक्राचार्य के पास शिक्षार्थ भेजा गया। देवगणों या तथाकथित ‘शुचितावादी’ समूह द्वारा किए गए अधर्म की यह बानगी थी जो महाभारत में अपने चरम पर पहुँचती है। वहाँ कृष्ण का आत्मालापी अन्तर्विरोध काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘उपसंहार’ में मिलता है।
क्या यह वाजिब बात है कि एक पिता जो अपने पुत्र के लिए कभी उपस्थित ही नहीं रहा, पुत्र के युवा हो जाने पर उस पुत्र के क्षत्रियोचित गुणों के लिए उसी पिता को श्रेय दे दिया जाए जबकि लालन-पालन का सारा श्रम और संघर्ष माँ ने किया है? याद रखिए कि यहाँ शर्मिष्ठा एक योद्धा भी है, धनुर्विद्या में निपुण। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि शर्मिष्ठा के पुत्र पुरू ने अपना यौवन, पिता ययाति को देते समय एक बार भी अपनी माँ और अपनी नवविवाहिता पत्नी के बारे में नहीं सोचा? ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हमारी पौराणिक कथाओं में मिलते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज की गवाही देते हैं। पुरू की पत्नी उसे वयोवृद्ध देख आत्महत्या कर लेती है। तब बृहस्पति पुत्र कच आते हैं और शुक्राचार्य के श्राप का असर समाप्त कर देते हैं। वही कच एक बार भी अपनी संजीवनी विद्या का प्रयोग कर चित्रलेखा को जीवित करने का प्रयास नहीं करते। यह अलग बात है कि देवयानी के श्राप के चलते उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता की घड़ी में अपनी संजीवनी विद्या को भूल जाना था, किन्तु एक बार वे प्रयास करते तो यह न्यायोचित लगता। पुरोहित पुरू को राज सिंहासन पर नहीं, अपितु चित्रलेखा की राख के ढेर पर आसीन होने का रास्ता साफ़ करते नज़र आते हैं। कैसा ताना-बाना है यह समाज का?
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उपन्यास पीरियोडिक होते हुए एवं भाषा उस युग के अनुरूप होते हुए भी, भाषा और स्त्रीवाद का ट्रीटमेंट यहाँ किसी भी आम पाठक को जोड़ता हुआ महसूस होगा।
यह एक कठिन विषय था और मेरी दृष्टि में अणुशक्ति विषय का निर्वाह बड़े अच्छे ढंग से कर गई हैं।
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