पेड़ों पर जो चमगादड़ लेटे हैं
शहर भर का सन्नाटा समेटे हैं
अपने पंखों के बीच,

ये कभी नहीं लिखे गए
बच्चों की कहानियों में,

चमगादड़ों का हमारे बीच बने रहना
संघर्ष के अतीत को लिखने जैसा है,

उन्होंने स्वीकार किया अँधेरा बनना
जबकि वे कुछ भी बन सकते थे,
उन्होंने दिन की ऊहापोह के बीच
रातों को अपने अन्दर जिलाये रखा,

जब वे शहरों की तरफ़ उड़े
साथ ले आये
अपनी उड़ान में थोड़ा सा जंगल,

जिस घर की दीवार पर बैठे चमगादड़
वहाँ से भूखे बच्चों की आवाज़
आसमाँ में उठा ले जाने लगे,

पूरे शहर में पसरी चीखों को
उन्होंने पेड़ों के पत्तों से दूर रखा,
टहनियों से वो अनशन पर लटके रहे
ये अलग बात है,

चमगादड़ों ने उल्लंघन किया
समाज के हर नियम का,
यहाँ तक कि दिन और रात का भी,

उन्हें इसलिए जगह मिली सिर्फ़
डरावनी कहानियों में,
मुँह से खून टपकता दिखाया गया,
उनको अँधेरे में जगह मिली,
रोशनी को उनसे दूर रखा गया,

किसी चित्रकार ने उन में रंग नहीं भरा,
ना ही उनके लिये राग लिखे गए,
कभी चाँद के पास से उड़ने पर भी
कवियों ने उन्हें कविता में जगह नहीं दी,

फिर भी वे लटके रहते हैं
पेड़ों से, टहनियों से,
कहानियों से, किरदारों से,
अंधेरे से और सूरज से भी,

शहरों के चमगादड़
शहर का सोता हुआ संघर्ष है
और हर कहानी में
संघर्ष ज़िंदा बना रहता है।

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