1

ठर्रा के पलीता ने
आग लगा दी ग़ुस्से की भट्टी में
मज़दूर ने पहली बार ज़ुबान खोली
‘पल-पल का हिसाब लूँगा हरामियों से।’

2

लोकतंत्र में एक जम्बूरा ठोकतंत्र का
दिखता दूजा भोगतंत्र का
और तीसरा ढोकतंत्र का
किन्तु नहीं है लोक-मदारी ठोसतंत्र का।

3

दर्ज़न-भर से ज़्यादा निकले पत्र
घोषणाओं के फिर से
नारों के नक्कारालय में
सुनें कौन जनता की तूती।

4

हरी दूब की नोंक चूम
चींटी उतरी हौले धरती पर
देख चुकी जैसे संसार।

5

कुसुम-कली ने कहा सखी से
‘अभी न खिलना, शीत भोर है
ठिठुरायी है स्वयं धूप भी।’

6

बाहर तेज़ हवा हड़कम्पी
साथी, चलें टहलने
माथा गरम हमारा।

7

बहुत बहस हो चुकी दोस्त
अब अपच हो रहा
देखें उन बच्चों की मस्ती।

8

भाई, दूर सोचकर संध्या
ओढ़ दुपहरी
देख, नींद में स्वप्न भोर के।

9

रात अमावस, वीराने की थी तन्हाई
जिसने मुझको गले लगाया
होगा वह क्या मेरे जैसा?

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प्रस्तुत क्षणिकाएँ अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित ‘आदिवासी जलियाँवाला एवं अन्य कविताएँ’ से ली गई हैं।
हरिराम मीणा
सुपरिचित कवि व लेखक।