‘Shraddha Aur Vishwas’, a poem by Namrata
परिणीत हो गयी हूँ मैं स्वयं से
स्वयं पर ही बिछ गई हूँ
तुम जो रहते हो न मुझमें
स्वयं पर ही खिंच गयी हूँ।
तुम्हारे नयनों के झिलमिल का पारगमन
हमारे विस्थापन का संकेत है
तुम्हारे झिलमिलाते दृगों का उदय
हमारी एकसारता का चिह्न है
इन आँखों की झिलमिलाहट को
अक्षुण्ण रखने का ऋण है मुझ पर।
पीछे छूटे हुए लोगों में मात्र
अभिसारित ही होते हैं
यादों के बल्ब।
क्या मैं भी पीछे छूट जाऊँगी?
किसी दिन जब सभी हुनर मुझसे
आँखें फेर लेंगे
तब मेरी निर्गुणता पर भी क्या तुम
यूँ ही कर पाओगे मदमस्त गान?
कितनी अबोध हूँ मैं…
कैसे भूल गयी मैं इस बेतुके प्रश्न के पहले
एक लम्बे अन्तराल तक तुम अकेले
लगन-पीड़ा की एक गठरी
साथ लिए फिरे हो।
यह पीड़ा तुम अकेले क्यों सहो?
प्रारब्ध की निर्बाध वायु ने,
इस पीड़ा की सुगंधि को मुझमे घर करा कर
हमें मिल-बाँट कर सहना सिखा दिया।
अब
मेरी श्रद्धा है वो प्रेम
जो मैं तुम्हें करती हूँ,
मेरा विश्वास है वो प्रेम
जो तुम मुझे करते हो।