नानी प्यार से उसे सिलिया ही कहती थीं। बड़े भैया ने अपनी शिक्षा प्राप्त सूझबूझ के साथ उसका नाम शैलजा रखा था। माँ-पिताजी की वह सिल्ली रानी थी।
सिलिया ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। साँवली-सलोनी, मासूम-भोली, सरल और गम्भीर स्वाभाववाली सिलिया स्वस्थ देह के कारण अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही लगती थी। इसी वर्ष 1960 की सबसे अधिक विशिष्ट घटना घटी, हिन्दी अखबार ‘नई दुनिया’ में विज्ञापन छपा- ‘शूद्र वर्ण की वधू चाहिए’। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के जाने माने युवा नेता सेठी जी अछूत कन्या के साथ विवाह करके समाज के सामने एक आदर्श रखना चाहते थे। उसकी केवल एक ही शर्त थी कि लड़की कम-से-कम मैट्रिक हो।
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के इस छोटे गाँव में भी विज्ञापन को पढ़कर हलचल मची थी। गाँव के पढ़े-लिखे लोगों ने, ब्राह्मण-बनियों ने सिलिया की माँ को सलाह दी, “तुम्हारी बेटी तो मैट्रिक पढ़ रही है, बहुत होशियार और समझदार भी है, तुम उसके फोटो, नाम, पता ओर परिचय लिखकर भेज दो। तुम्हारी बेटी के तो भाग्य खुल जाएँगे, राज करेगी। सेठी जी बहुत बड़े आदमी हैं, तुम्हारी बेटी की किस्मत अच्छी है…..”
सिलिया की माँ अधिक जिरह में न पड़ केवल इतना ही कहतीं, “हाँ भैया जी… हाँ दादा जी… हाँ बाई जी, सोच-विचार करेंगे।”
सिलिया के साथ पढ़नेवाली सहेलियाँ उसे छेड़ती, हँसती और मजाक करतीं, मगर सिलिया इस बात का कोई सिर-पैर नहीं समझ पाती। उसे बड़ा अजीब लगता, “क्या कभी ऐसा भी हो सकता है?”
इस विषय में घर में भी चर्चा होती। पड़ोसी और रिश्तेदार कहते, “फोटो और नाम पता भेज दो।”
तब सिलिया की माँ अपने घरवालों को अच्छी तरह समझाकर कहती, “नहीं भैया, यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं। आज सबको दिखाने के लिए हमारी बेटी के साथ शादी कर लेंगे और कल छोड़ दिया तो हम गरीब लोग उनका क्या कर लेंगे? अपनी इज्जत अपने समाज में रहकर ही हो सकती है। उनकी दिखावे की चार दिन की इज्ज़त हमें नहीं चाहिए। हमारी बेटी उनके परिवार और समाज में वैसा मान-सम्मान नहीं पा सकेगी, न ही फिर हमारे घर की ही रह जाएगी, न इधर की न उधर की, हमसे भी दूर कर दी जाएगी। हम तो नहीं देवें अपनी बेटी को। हम उसको खूब पढ़ाएँगे-लिखाएँगे। उसकी किस्मत में होगा तो इससे ज्यादा मान-सम्मान वह खुद पा लेगी।”
बारह साल की सिलिया डरी, सहमी-सी एक कोने में खड़ी थी और मामी अपनी बेटी मालती को बाल पकड़कर मार रही थी, साथ ही जोर-जोर से चिल्लाकर कहती जा रही थी, “क्यों री, तुझे नहीं मालूम, अपन वा कुएँ से पानी नहीं भर सके हैं? क्यों चढ़ी तू वा कुआँ पर, क्यों रस्सी-बाल्टी को हाथ लगाया?” और वाक्य पूरा होने के साथ ही दो-चार झापड़, घूसे और बरस पड़ते मालती पर। बेचारी मालती, दोनों बाँहों में अपना मुँह छिपाए चीख-चीखकर रो रही थी। साथ ही कहती जा रही थी, “ओ बाई, माफ कर दो, अब ऐसा कभी नहीं करूंगी”।
मामी का गुस्सा और मालती का रोना देखकर सिलिया अपराधबोध का अनुभव कर रही थी। अब अपनी सफाई में बहुत कुछ कहना चाहती थी, मगर इस घमासान प्रकरण में उसकी आवाज धीमी पड़ जाती। मामी को थोड़ा शान्त होते देख सिलिया ने साहस बटोरा, “मामी, मैंने तो मालती को मना किया था, मगर वह मानी ही नहीं। कहने लगी जीजी प्यास लगी है, पानी पिएँगे।” मैंने कहा, “कोई देख लेगा?” तो कहने लगी, “अरे जीजी भरी दोपहरी में कौन देखने आएगा, बाजार से यहाँ तक दौड़ते आए हैं, प्यास के मारे दम निकल रहा है।”
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मामी बिफरकर बोली, “घर कितना दूर था, मर तो नहीं जाती। मर ही जाती तो अच्छा रहता, इसके कारण उसे कितनी बातें सुनानी पड़ी।” मामी ने दु:ख और अफ़सोस के साथ अपना माथा ठोंकते हुए कहा था, “हे भगवान, तूने हमारी कैसी जात बनाई।”
सिलिया नीचे देखने लगी। सच बात थी। गाडरी मुहल्ला के जिस कुएँ से मालती ने पानी निकालकर पिया था, वहां से बीस-पच्चीस कदम पर ही मामा-मामी का घर था, जिसकी रस्सी-बाल्टी और कुएँ को छूकर मालती ने अपवित्र कर दिया था। वह स्त्री बकरियों के रेवड़ पालती थी। गाडरी मुहल्ले के अधिकांश घरों में भेड़-बकरियों को पालने का और उन्हें बेचने-खरीदने का व्यवसाय किया जाता था। गाडरी मुहल्ले से लगकर ही आठ-दस घर भंगी समाज के थे। सिलिया के मामा-मामी यहीं रहते थे। मालती सिलिया की ही हमउम्र थी। बस साल-छह महीना छोटी होगी, मगर हौसला और निडरता उसमें बहुत ज्यादा थे। जिस काम को न करने की नसीहत उसे दी जाए, उसी काम को करके वह खतरे का सामना करना चाहती थी। सिलिया गम्भीर और सरल स्वभाव की आज्ञाकारी लड़की थी।
मालती को रोता हुआ देख उसे खराब जरूर लगा, मगर वह इस बात को समझ रही थी कि इसमें मालती की ही गलती है, “जब हमें पता है कि हम अछूत दूसरों के कुएँ से पानी नहीं ले सकते तो फिर वहाँ जाना ही क्यों?” वह बकरीवाली कैसे चिल्ला रही थी, “ओरी बाई, दौड़ो री, जा मोड़ी को समझाओ… देखो तो, मना करने के बाद भी कुएँ से पानी भर रही है। हमारी रस्सी-बाल्टी खराब कर दई जाने….।” और मामी को उसने कितनी बातें सुनाई थीं, “क्यों बाई, जई सिखाओं हो तुम अपने बच्चों को, एक दिन हमारे मुँड़ पर मूतने को कह देना। तुम्हारे नज़दीक रहते हैं तो का हमारा कोई धरम-करम नहीं है? का मरजी है तुम्हारी साफ़-साफ़ कह दो।” मामी गिड़गिड़ा रही थी, “बाई जी, माफ कर दो। इतनी बड़ी हो गई, मगर अकल नहीं आई इसको। कितना तो मारूं हूँ, फिर भी नहीं समझे।” और मामी वहीं से मालती को मारती हुई घर लाई थी।
“बेचारी मालती!” सिलिया सोच रही थी कि भगवान उसे जल्दी ही अक्ल दे देंगे, तब वह ऐसे काम नहीं किया करेगी।
इसके एक साल पहले की बात है– पाँचवीं कक्षा के टूर्नामेण्ट हो रहे थे। खेल-कूद की स्पर्धाओं में उसने भी भाग लिया था। अपने कक्षा-शिक्षक और सहपाठियों के साथ वह तहसील के स्कूल में गई थी। उसकी स्पर्धाएँ आरम्भ में ही लेने से जल्दी पूरी हो गईं। वह लम्बी दौड़ और कुर्सी दौड़ स्पर्धाओं में प्रथम आई थी। वह अपनी खो-खो टीम की कैप्टन थी और खो-खो की स्पर्धा में उसी के कारण जीत मिली थी। खेल-कूद के शिक्षक गोकुल प्रसाद ठाकुर जी ने सबके सामने उसकी बहुत तारीफ की थी। साथ ही पूछा था, “शैलजा, यहाँ तहसील में तुम्हारे रिश्तेदार रहते होंगे, तुम वहाँ जाना चाहती हो, हमें पता बताओ, हम पहुँचा देंगे।”
सिलिया मामा-मामी के घर का पता जानती थी, मगर शिक्षकों के समक्ष उनका पता बताने में उसे संकोच हो रहा था। शर्म के मारे वह नहीं बता पायी। उसने कहा, “मुझे तो यहाँ किसी का भी पता मालूम नहीं।”
तब सर ने उसकी सहेली हेमलता से कहा था, “हेमलता, इसे अपनी बहन के घर ले जाओ। शाम को सभी एक साथ गाँव लौटेंगे, तब तक यह वहाँ आराम कर लेगी।”
हेमलता ठाकुर सिलिया के साथ ही पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी। उसकी बड़ी बहन का ससुराल तहसील में था। उनका घर तहसील के स्कूल के पास ही था। हेमलता सिलिया को लेकर बहन के घर आई। बहन की सास ने हँसकर उनका स्वागत किया। हेमलता को पानी का गिलास दिया। दूसरा गिलास हाथ में लेकर सिलिया से पूछने लगी, “कौन है, किसकी बेटी है, कौन ठाकुर है?”, सिलिया कुछ कह न सकी।
हेमलता ने कहा, “मौसी जी मेरी सहेली है, साथ में आई है। इसके मामा-मामी यहाँ रहते हैं, मगर इसे उनका पता मालूम नहीं है।”
बहन की सास उसे ध्यान से देखते हुए विचार करती रही, फिर हेमलता से जाति के विषय में पूछा, हेमलता ने धीरे से बता दिया। उसे लगा जाति सुनकर मौसी जी एक मिनट के लिए चौंकी। पर उन्होंने अपने आप को संयत करते हुए सिलिया से पूछा, “गाडरी मुहल्ला के पास रहते हैं?”
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सिलिया ने हाँ कहकर सिर झुका दिया। तब मौसी जी ने अतिरिक्त प्रेम जताते हुए कहा, “कोई नहीं बेटी, हमरा भैया तुम्हें साईकिल पे बिठा के छोड़ आएगा।” ऐसा कहते हुए मौसी जी पानी का गिलास लेकर वापिस अन्दर चली गई। सिलिया को प्यास लगी थी, मगर वह मौसी जी से पानी माँगने की हिम्मत नहीं कर सकी।
मौसी जी के बेटे ने उसे गाडरी मुहल्ले के पास छोड़ दिया था। सिलिया रास्ते भर कुढ़ती जा रही थी। आखिर उसे प्यास लगी थी तो उसने मौसी जी से पानी क्यों नहीं माँगकर पिया। तब मौसी के चेहरे पर एक क्षण के लिए आया भाव उसकी नजरों में तैर गया। कितना मुखौटा चढ़ाए रखते हैं ये लोग। मौसी जी जानती थीं कि उसे प्यास लगी है, पर जाति का नाम सुनकर पानी का गिलास लौटा ले गई। “क्या वे पानी माँगने पर इनकार कर देतीं?” सिलिया को यह सवाल साल रहा था।
सिलिया को देखकर मामा-मामी मालती और सभी लोग बहुत खुश थे, बड़े उल्लास के साथ मिल थे, मगर सिलिया हेमलता की बहन की ससुराल से मिली उमस को भूल नहीं पा रही थी। शाम के समय मामा ने उसे स्कूल पहुँचा दिया था। सिलिया का स्वभाव चिन्तनशील बनता जा रहा था। परम्परा से अलग नए-नए विचार उसके मन में आते। वह सोचती- “आखिर मालती ने कौन-सा जुर्म किया था- प्यास लगी, पानी निकालकर पी लिया।” फिर वह सोचती- “हेमलता की मौसी जी से वह पानी क्यों नहीं ले सकी थी?—और अब यह विज्ञापन-उच्च वर्ग का नवयुवक, सामाजिक कार्यकर्ता जाति भेद मिटाने के लिए शूद्र वर्ण की अछूत कन्या से विवाह करेगा – यह सेठी जी महाशय का ढोंग है – आडम्बर है या सचमुच वे समाज की, परम्परा को बदलनेवाले सामाजिक क्रान्ति लानेवाले महापुरुष हैं?”
उसके मन में यह विचार भी आता कि अगर उसे अपने जीवन में ऐसे किसी महापुरुष का साथ मिला तो वह अपने समाज के लिए बहुत कुछ कर सकेगी। लेकिन क्या कभी ऐसा हो सकता है? यह प्रश्न उसके मन से हटता नहीं था। माँ के यथार्थ के आधार पर कहे गए अनुभव कथन पर उसका आस्थापूर्ण विश्वास था। मध्यप्रदेश की जमीन में सन् 60 तक ऐसी फस्ल नहीं उगी थी, जो एक छोटे गाँव की अछूत मानी जानेवाली भोली-भाली लड़की के मन में अपना विश्वास जगा सके। और फिर दूसरों की दया पर सम्मान? अपने निजत्व को खोकर दूसरों के शतरंज का मोहरा बनकर रह जाना, बैसाखियों पर चलते हुए जीना नहीं कभी नहीं! सिलिया सोचती- “हम क्या इतने भी लाचार हैं, आत्मसम्मान रहित है, हमारा अपना भी तो कुछ अहं भाव है। उन्हें हमारी जरूरत है, हमको उनकी जरूरत नहीं। हम उनके भरोसे क्यों रहें। पढ़ाई करूंगी, पढ़ती रहूँगी, शिक्षा के साथ अपने व्यक्तित्व को भी बड़ा बनाऊँगी। उन सभी परम्पराओं के कारणों का पता लगाऊँगी, जिन्होंने उन्हें अछूत बना दिया है। विद्या, बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा सिद्ध करके रहूँगी। किसी के सामने झुकूँगी नहीं। न ही अपमान सहूंगी।” इन बातों का मन-ही-मन चिन्तन-मनन करती सिलिया, एक दिन अपनी माँ और नानी के सामने कहने लगी, “मैं शादी कभी नहीं करूंगी।”
माँ और नानी अपनी भोली-भाली बेटी को ध्यान से देखती रह गईं। नानी खुश होकर बोली, “शादी तो एक-न-एक दिन करना ही है बेटी, मगर इसके पहले तू खूब पढ़ाई कर ले, इतनी बड़ी बन जा कि बड़ी जात के कहलानेवालों को अपने घर नौकर रख लेना।” माँ मन-ही-मन मुस्करा रही थी। सोच रही थी, “मेरी सिल्लो रानी को मैं खूब पढ़ाऊँगी। उसे सम्मान के लायक बनाऊँगी।”
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