एक सोलह बरस के लड़के की कविताओं के बिम्ब
इतने कुरूप क्यों हैं?

यहाँ
मगरमच्छ क्यों हैं,
रंग-बिरंगी मछलियाँ क्यों नहीं?

कोई पूछता भी नहीं
सोलह बरस के कवि से
कि यहाँ तो सोता होना था
फिर इतनी प्यास क्यों हैं?

हरदम महकती रहनी थी यह जगह
इत्र होते या कुछ और
फिर, चिमनियों का सा धुआँ क्यों हैं?

सोलह बरस के लड़के को तो
शुतुरमुर्गी चुम्बन में डूब जाना था,
या कोई अश्लील किताब ले
बिस्तर में ही लुक जाना था,
उसकी पथरीली आँखों को
किसी की सजीली आँखों के आगे,
सहसा ही झुक जाना था,
दो कदम आगे आना था
तीन कदम पीछे,
फिर असमंजस में
बीच में ही कहीं रुक जाना था।

उसकी कविताओं के आकाश को नीला
और धरती को असामान्य रूप से हरा होना था।

उसकी कविताओं में
मधुमक्खियों को छत्ता लगाना था,
कोयलों को घोंसला बनाना था।

उसकी कविताओं के आसपास
होना चाहिए था―
एक अद्भुत प्रकाश
किसी लैम्पपोस्ट की तरह
कीट-पतंगों को जहाँ डेरा जमाना था।

उसकी कविताओं में
उपासना,
विपासना,
सपना
लड़कियों के नाम होने थे।

और, वासना?
वासना―किसी ऋतु का!

लेकिन,
उसकी कविताओं के बिम्ब
इतने कुरूप हैं
और
कोई पूछता भी नहीं
कि यहाँ तो सोता होना था
फिर इतनी प्यास क्यों हैं?

(2018)

कुशाग्र अद्वैत
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं, इक्कीस बरस के हैं, कविताएँ लिखते हैं। इतिहास, मिथक और सिनेेमा में विशेष रुचि रखते हैं। अभी बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से राजनीति विज्ञान में ऑनर्स कर रहे हैं।