स्थायी पते से दूर
अनजान शहर में
जब हम ढूँढते हैं कोई अस्थायी पता

किराए के किसी कमरे में
ख़र्च कर रहे होते हैं जब अपना वर्तमान
और जुटा रहे होते हैं भविष्य
हम यह मानकर चलते हैं कि
एक दिन सब अच्छा हो जाएगा

हम यह भी मानकर चलते हैं कि
जब सभी दरवाज़ों पर
लटके हुए मिलेंगे ताले

जब सारा शहर
बंजर ज़मीन की तरह ख़ामोश होगा

कुत्तों का रोना
जब सड़क की नींद में धँस रहा होगा

मरघटी शून्यता
जब चिता पर लेटे
किसी परिचित की याद दिला रही होगी

भूख जब हमारी आँतों को टटोल रही होगी

वैसे हताश समय में
विकल्पहीनता की उस स्थिति में
हमें लौटना होगा
अपने स्थायी पते पर

क्योंकि
स्थायी पता
लिफ़ाफ़ों पर लिखा जाने वाला
गाँव, मोहल्ला या पिनकोड भर नहीं होता
वह होता है
लम्बी परिधि वाला वृत्त
जिसका एक बिन्दु
हमेशा हमारे लिए सुरक्षित रहता है
जहाँ कभी भी
किसी भी दिशा से लौटा जा सकता है…

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408