‘Stree’, a poem by Sapna Shrivastava

कभी देखा है उस स्त्री को तुमने
जो अलसुबह उठकर तुम्हारा घर बुहारती है
अपनी ज़ुल्फ़ें न सँवारकर
घर-आँगन और बाग़-बग़ीचे सँवारती है

अजब ही होती है वो स्त्री
जो रसोई में घण्टों खड़े रहकर
तुम्हें रिझाना चाहती है
पसीने से लथपथ, बिखरे से बाल
देह से आती मसालों की महक के साथ,
ख़्वाहिश होती है तुम्हें तृप्त करने की

उलझी-सी रहती है वो स्त्री
घर परिवार और रिश्तों की समीकरणों में
स्वयं को बिसराकर याद रखती है
बस तुम्हें और तुमसे जुड़ी हर बात को

कमनीय कंचन काया नहीं
क्योंकि ख़ुद के लिए तो कभी पकाया ही नहीं
स्वयं की पसंद नापसंद का भान ही नहीं
कि तुमसे इतर तो कोई पहचान ही नहीं

पर जब तुम आत्मा से परे
देह की तलाश में होते हो
तो उस स्त्री की भी बस देह ही रह जाती है
क्योंकि तुम्हारी उस तलाश में
आत्मा तो कब की मर जाती है…