मेरे शब्द हमेशा अधूरे रहे
कविताओं के मध्य;
सिर्फ़ उन भावों में
जहाँ पौरुष;
स्त्रीत्व के समानुपात में रहना था
लेकिन शब्दों के अनुतान में;
बड़े बेढब तरीक़े से
व्युत्क्रम में चला गया,
कई कोशिशें की मैंने
लेकिन एक स्त्री के
ब्रह्माण्ड में झाँकते हुए
सिर्फ़ मैं अपने शब्दों को सम्भाल पाया;
भाव कहीं पीछे रह गए।
शब्दों का ही विरोधाभास;
हमेशा व्याकरण की एक
किताब को तलाशने पर
विवश करता रहा;
किंतु कुछ परिभाषाएँ
जो किसी;
नियत और प्रायोजित
उद्देश्य के लिए
मेरे आवरण में,
बड़ी बारीकी से गढ़ दी गईं,
उनके ऊपर आश्रित मेरे
ये शब्द हमेशा;
एक अतिरिक्त अर्थ की तलाश में
अपने पर्यायवाची ढूँढते रहेंगे।
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