तुम्हारे क़दमों की ताल से हिलती है धरती
तुम्हारे पुरुषार्थ से थर्राता है आकाश
गर तुम नहीं हिले तो नहीं हिले पत्ता भी
तुम नहीं चलो तो नहीं चले हवा भी।
कहते हैं तीन बार कहने से
कोई भी वचन आत्मा से बोला हुआ
सत्य वचन माना जाता है
मगर उनका सौ बार गिड़गिड़ाना
फ़रियाद करना भी सामान्य है
उनकी फ़रियाद भिखारी की फ़रियाद से भी
निम्न कोटि की है तुम्हारी नज़र में
जिसकी कभी कोई सुनवाई नहीं होगी।
वे तुम्हारे सामने हज़ार बार गिड़गिड़ायीं
कभी प्रेम के लिए, जीवन के लिए
कभी पढ़ने के लिए, आगे बढ़ने के लिए
कभी पीहर के लिए, प्रियजनों से मिलने के लिए
कभी हँसने के लिए, कभी रोने के लिए
तुमने हमेशा अनसुना किया
उनकी कातर पुकार को
फिर भी वे चुपचाप सहती रहीं
कि कभी तुम नरम होंगे उसके लिए
कभी पत्थर पिघलेगा तुम्हारे भीतर का
कभी तुम्हें महसूस होगा
उनके आँँसुओं का नमक।
वे करती रहीं तुम्हारे लिए व्रत उपवास
खड़ी रहीं दिनभर भूखी-प्यासी
तुमने नहीं बख़्शा उन्हें
बीमार और गर्भवती होने पर भी
जब मन किया रौंदा अपनी इच्छाओं तले
नहीं पूछा कभी उनका मन
नहीं रोका उठाने से अपना हाथ
फिर भी वे रहीं हमेशा तुम्हारे साथ।
कोई भी दुःख आया तुम्हारे जीवन में
सबसे पहले वे आगे आयीं
हर संकट में भरी तुम्हारी बाथ।
तुम्हें प्यास लगी तो बन गईं शीतल जल
बिछीं तुम्हारे लिए हमेशा सुख की सेज बनकर
फिर भी तुम निकल गये सौंसाट
कभी रात में सोता छोड़कर
कभी दिन-दहाड़े आँखों के सामने से
बिना एक वचन भी बोले
कि कहाँ जा रहे हो? कब आओगे?
वे तरसती रहीं हमेशा
यह बात सुनने के लिए भी कि-
“अपना ख़्याल रखना!”
देखती रहीं तुम्हें मुस्कराते हुए
बातें करते हुए माँ-बाप, संगी-साथियों से।
वे कभी तुम्हारा विश्वास नहीं जीत पायीं
तन-मन-जीवन अर्पण करने के बाद भी
तुमने हर बार उन्हें निष्ठुर होकर छोड़ दिया।
वे फिर भी अग्नि-परीक्षाएँ देती रहीं
रोती रहीं और ख़ुद को दुःख देती रहीं
अब कौन उन्हें समझाए
वे तो ब्रज की बावरी गोपियों-सी हैं
जो गाती रहीं, गुनगुनाती रहीं
“माई री वा मुख की मुसकान,
सम्हारि न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं॥”
विजय राही की कविता 'देवरानी-जेठानी'