कितना सुन्दर है
सुबह का
काँच के शीशों से झाँकना
इसी ललछौंहे अनछुए स्पर्श से
जागती रही हूँ मैं
बचपन का अभ्यास इतना
सध गया है
कि आँखें खुल ही जाती हैं सुबह की मद्धिम आवाज़ पर भी
पर इतनी ही खुलती हैं कि मेरे जागने पर
आसपास सब यथावत चलता रहे
इन्हीं सुबहों में हरहरा उठता है मेरा मन
पान की गिलौरियों-सा,
मन की सलाइयाँ चटकी हों
तो भी बीनने लगती हूँ
उजली सुबह के बूटेदार सपने
बिसर गये गीतों की धुन पर
टेक लेते हुए
भूल जाती हूँ
मन में उठती हर लपक
तिक्त मन से चाहती हूँ
चूक गये सपनों को सहेजना
पर देहरी से बंधे क़दम रुक जाते हैं
हर बार
चौखट के इस पार
कि देह की अलबलाहट
ख़ुद ब ख़ुद मन को झटक देती है परे
ललाट पर चमक आये सपनों को बुहारकर रख देती हूँ पैताने
अन्ततः देती हूँ ख़ुद को ही सांत्वना
कि इतना भी अपूर्ण नहीं है जीवन
कि अधूरी रह गई इच्छाओं के
बारे में सोचते हुए बिता दिया जाए
और शेष दिन को उलीच देती हूँ समय की अंजुली में
मुस्कुरा देती हूँ
खिड़की के पार दाने के लिए
आवाज़ देती चिड़ियों के झुण्ड को देखकर
सूख रहे कातर पौधों को
देती हूँ पानी
कि उनके हरेपन की गंध मेरी संततियों को हरेपन से भर देगी
मन की हरारत देह से उतर जाती है
दिग्ध मन डूबने से थिर जाता है
सूरज फिर निकल आता है…
शालिनी सिंह की कविता 'हठी लड़कियाँ'