हिन्दी के मशहूर साहित्यकार अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 को हुआ था। उन्होंने नाटक, रेडियोनाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई, उनका हास्य-व्यंग्य लेखन भी काफ़ी प्रचलित रहा है। अमृतलाल नागर 23 फरवरी 1990 को इस दुनिया को अलविदा कह चले। उनकी पुण्यतिथि पर प्रस्तुत है एक अंश उनके उपन्यास ‘सुहाग के नूपुर’ से, जिसमें उन्होंने दक्षिण प्रदेश के प्राचीन जीवन की भीनी सुगंध को दर्शाया है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी।

माधवी और पेरियनायकी के देश-निकाले की सम्भावना पर हाट-बाट में फैले समाचार सुन चेलम्मा चुप न बैठ सकी। माधवी की करनी पर भयंकर पश्चात्ताप होते हुए भी उसका सम्पूर्ण मन माधवी का ही था। वह उसकी शिष्या; उसके पतित, त्रस्त जीवन का एकमात्र वैभव; उसकी विजयपताका थी। माधवी उसकी वेश्या-जीवन की मौसेरी बहन और बाल-सखी की पोष्यपुत्री और स्वयं ममता की कोख से जायी उसकी बेटी थी। वह उसका नाश नहीं देख सकती थी। अपना सब-कुछ गँवाकर अब वह अपनी बेटी का भविष्य नहीं गँवा सकती थी। माना कि उससे भूल हुई, पर उस भूल के पीछे छिपी हुई आग को क्यों भूल जाते हैं ये स्वयंप्रतिष्ठित न्यायशास्त्री! ‘यह पुरुषपरमेश्वर चित्त भी अपनी और पट भी अपनी ही रखना चाहता है। वाह रे बन्दर तेरा न्याय!’ चेलम्मा के कलेजे की तीव्र उमड़-घुमड़ सनक-भरी हँसी की राह पाकर बह चली। वह हँसकर मानो पुरुषपरमेश्वर से बदला ले रही थी। मन में कुछ ठानकर बिना किसी से कुछ कहे-सुने वह अपने मानाइहन प्रदत्त घर से कहीं चली गई, दो दिन किसी को दिखलायी ही न पड़ी और तीसरे दिन वह नगर का हुल्लड़ बनकर चारों ओर व्याप्त हो गई। तब से आज यहाँ कल वहाँ के क्रम से एक-एक हाट-बाट, गली-कूचे में चेलम्मा का कार्यक्रम चल रहा है। चारों ओर हँसी के साथ उसकी धूम मची हुई है।

पान्सा और पेरियनायकी रथ में बैठे चले जा रहे थे। मार्ग पर आगे कुछ दूर पर भीड़ दिखलायी दे रही थी। बीच में हँसी के ज़ोरदार ठहाके हवा में फैल जाते थे। पान्सा सेठ के चेहरे पर हल्की मुस्कराहट आ गई। पेरियनायकी की ओर देखकर कहा, “हो न हो तुम्हारी बाल-सखी ने ही भीड़ लगा रखी है।”

सच, वह चेलम्मा की ही भीड़ थी। लकड़ी के बने दो बन्दर के पुतले रखे वह बीचोबीच बैठी थी। दोनों पुतले नारी वेश से सजे थे। एक बन्दरिया वेश्या का साज साजे थी, दूसरी गृहिणी का। दोनों बन्दरियाँ गहनों से लदी थीं। चेलम्मा ने दोनों बन्दरियों को रंगीन रेशमी डोरियों की लम्बी-लम्बी दुमें लगा रखी थीं और धरती तक लटकती एक दुम आप भी खोंस, भारतीय सेठ का स्वाँग बनाए, लच्छेदार हँसी-भरी बातें बनाती अपने चेहरे पर नकली दाढ़ी-मूँछ लगा रही थी।

“चेलम्मा! यह दाढ़ी किसकी लगायी है?”

“शंकरन मुदलियार की।”

“और मूँछें?”

“बड़ी मूल्यवान हैं। दुनिया-भर के सेठ-सामन्तों की मूँछ से एक-एक बाल उखाड़कर लायी हूँ। और भूल-चूक में जिसकी मूँछ बच गई हो, वह उखड़वा ले।”

भीड़ से चोंचें लड़ाते चेलम्मा उठ खड़ी हुई, डुगडुगी बजाकर गीत गाना आरम्भ कर दिया।

मैं हूँ बानर चेट्टियार
बढ़ा-चढ़ा मेरा व्यापार
जगतसेठ मैं पदवीधारी
यह है मेरी पत्नी प्यारी!…

गीतकथा चलती रही। बन्दर सेठ ने अपनी गृहिणी बानरी को बड़े प्यार से उठा अपने कलेजे से लगाया, फिर उसकी प्रशंसा आरम्भ की, “अरी मेरी लाडो! तू ही तो मेरी सब-कुछ है, मेरे लिए बच्चे जनती है, नाते-गोते बाँधती है, मेरे दास-दासियों पर नियन्त्रण रखती है। तू मेरी तिजोरी है, तू मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा है। हाय मेरी लाडो! मेरे लिए तो बस तू ही तू है।…अरे…

अब भी रूठी है तू प्यारी
जगतसेठ मैं पदवीधारी।
तुझे मनाता बारम्बार
आज किया लम्बा व्यापार
हुई इसी से आधी रात
मान री प्यारी मेरी बात!…”

“नहीं मानती? तो ले!” कहकर बानर चेट्टियार ने अपनी कुलवधू को धमाधम पीटना और गालियाँ देना आरम्भ कर दिया, उसके गहने-कपड़े छीन, उसकी दुम अपनी दुम में जोड़ वह अपनी वेश्या की ओर उन्मुख हुआ। उसने अपनी रखैल वेश्या के भी बड़े लाड़ लड़ाए और अन्त में उसकी भी किसी बात से रूठ, धमाधम मार-पीटकर गहने-कपड़े छीन लिए और उसकी दुम भी अपनी दुम में जोड़ ली। इस प्रकार दो बार एक से रूठ दूसरी को मनाकर धन-दौलत दी और खेल के अन्त में दोनों के गहने-कपड़े छीने तथा दोनों की दुमें अपनी दुम में जोड़कर सेठ ने कहा कि प्रतिष्ठा न इसकी है, न उसकी है, प्रतिष्ठा मेरी है। दुमदार अकेला मैं ही हूँ। फिर दुमदार सेठ ने अपनी दुम अर्थात् प्रतिष्ठा का बखान करते हुए ऐसा गीत गाया कि भलेमानस पानी-पानी हो गए। गौखों-झरोखों से गृहिणियाँ देखती हँस रही थीं, बच्चे हँस रहे थे, जनसाधारण, दास-दासियाँ हँस रहे थे।

दम्भी, विलासी सेठवर्ग अपने ही घर में अपनी हँसी उड़ते देख दब गया। चेलम्मा पर किसी का अंकुश नहीं था। उसकी बातें एक समूचे सामाजिक वर्ग की व्यवस्था पर व्यंग्य-प्रहार करती थीं। हास्य से नैतिक पक्ष का गम्भीर रूप भी जागा। धर्मगुरुओं ने अपने-अपने यजमानों को नैतिक बल देने का उत्साह दिखाया। प्रायः हर धनी घर के नवयुवक बिगड़े हुए थे। सामाजिक संयम शिथिल था। छोटे बड़ों की आज्ञा के विपरीत चलते थे। मानाइहन और मासात्तुवान के सम्मिलित प्रभाव ने नगर में एक नैतिक आन्दोलन को जन्म दिया।

कोवलन का जीवन बाह्य रूप से फिर सधाव पा चुका था। उसने मानो प्रायश्चित्त रूप में ही सब क्रीड़ाओं और मनोरंजनों से छुटकारा लेकर अपने-आपको अर्थब्रह्म की साधना में लीन कर दिया। पिता मासात्तुवान अब तक पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नहीं हुए थे। कोवलन भी उनके सामने जाते डरता था। अपने श्वसुर का विश्वास प्राप्त करके वह परोक्ष रूप में ही अपने पिता का विश्वास भी प्राप्त कर रहा था। मानाइहन चेट्यिार ने अपनी कोठी का काम भी कोवलन को समझाना, सौंपना आरम्भ कर दिया था। दक्षिण के दो सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक संस्थानों के विशाल संगठन-तन्त्र को देखने और सम्भालने में उसने अपनी विलक्षण बुद्धि, व्यवहारपटुता और अपूर्व लगन का परिचय दिया। उसके साथ-ही-साथ अनेक नवयुवक भी सम्भलकर नई गति पाने लगे। ऐसा प्रतीत होेने लगा मानो नगर में वर्षों बाद फिर से सतयुग आ रहा है। प्रतिष्ठित घरों के नवयुवक जब कोवलन के साथ होते तब वेश्या शब्द का उल्लेख तक न करते थे। और इसका परिणाम यह हुआ कि नगर के इतर नवयुवकों की संयम के बन्धन तोड़ती बाहरी उच्छृंखलता दबी-सी दिखायी देने लगीे।

रूप के हाट की अनुभवी कुटनियों ने वंजिपुत्रियों को अपने प्रेमियों के सम्मुख अतिशय मान प्रदर्शित करने से बरज दिया। अनेक वेश्या-अम्माओं ने यह नीति-सी बना ली कि अपनी पुत्रियों के प्रेमियों को वे समय रहते ही रात में अपने घरों से विदा कर दें। बीच में एक लहर तो ऐसी आयी कि मन्दिर के उत्सवों को छोड़ अन्य सामाजिक उत्सवों में वेश्याओं का नृत्य-गान, सोमपान आदि एकदम बन्द-सा ही हो गया। विलास के कच्चे घड़े सुधार के आँवे में छिपे-छिपे पकते रहे, उन्हें पकानेवाली आग की लपटें प्रत्यक्ष नहीं दिखलायी पड़ती थीं। कहीं कोई स्वाभिमानी युवक यदि अपने मन की इच्छाओं को खुली गति देता तो उस पर अँगुली उठायी जाती थी।

कुलीना-अकुलीना वेश्याओं के संघर्ष ने नगर की इस प्रतिक्रिया सेे वशीभूत हो तनिक उग्र रूप धारण करने का प्रयत्न किया, परन्तु वह अधिक चल न सका। इतना बड़ा सुधार-आन्दोलन होने पर भी, रूप के हाट का व्यापार तनिक मन्दा पड़ जाने पर भी ऐसा निस्तेज नहीं हुआ कि किसी वेश्या को अपने तात्कालिक उदरपालन अथवा भविष्य की विषम चिन्ता के कारण नगर छोड़ना पड़ा हो। महाजनी समाज का जनजीवन सदियों के संस्कारवश वारवधुओं से सम्बन्ध-विच्छेद करने में नितान्त असमर्थ था। फिर भी कुलीना-अकुलीना आन्दोलन का तात्कालिक स्थिति में इतना प्रभाव अवश्य पड़ा कि रूप के हाट में नई लड़कियों का ख़रीदा जाना कुछ कम हो गया।

इस नई सुधारवादी लहर के विपरीत पान्सा के प्रभाव की लहर बह रही थी। उनके साथी विदेशी व्यापारियों के समाज में वेश्याओं का स्थान बाह्य रूप से भी यथावत रहा। अपनी-अपनी वेश्याओं के साथ उद्यानगमन, सेठों की सोमपान गोष्ठियाँ आदि समस्त क्रीड़ाएँ यथावत चलती रहीं। पान्सा तथा उनके गुट के विदेशी व्यापारियों के साथ सम्बन्ध रखनेवाले भारतीय सेठ जब कभी उनके यहाँ जाते तब वैसा ही आचरण करते थे। पान्सा की नीति और दृढ़ता ने उनकी साख ऊँची उठा दी। मानाइहन और मासात्तुवान अजेय माने जाते थे। अब तक किसी भी भारतीय अथवा विदेशी व्यापारी ने उनकी इच्छा के विरुद्ध जाने का साहस ही नहीं किया था। पान्सा के सविनय किन्तु दृढ़ विरोध ने उन्हें अनेक ऐसे उद्योगपतियों की दृष्टि में ऊँचा उठा दिया जो मन-ही-मन इन महासेठों से जलते थे।

पान्सा चतुर और नीतिवान थे। उन्होंने कावेरीपट्टणम् में अपनी ऐसी साख बना रखी थी जैसी और किसी विदेशी ने न पायी थी। रोम उन दिनों भारतीय माल का सबसे बड़ा ग्राहक था। रोम सम्राट ऑगस्टस भारत-रोम के सीधे व्यापार के लिए जल और स्थल दोनों ही मार्गों पर अपने व्यापारियों को पूर्ण सुरक्षा देते थे। दक्षिण भारतीय पांड्य और चेरन राजदरबारों से उन्होंने राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर रखा था, उनके राजदूत वहाँ उपस्थित थे। चोलों की राजधानी उरैयूर में रोम का कोई राजनीतिक प्रतिनिधि नहीं था। चोल साम्राज्य की व्यापारिक राजधानी कावेरीपट्टणम् में पान्सा की प्रभावपूर्ण स्थिति देख रोम सरकार ने उन्हें ही एक प्रकार से अपना प्रतिनिधित्व दे रखा था। पान्सा ने अपना वही प्रभाव-चक्र इस समय चलाया। जिन ग्रीक और मिस्री कोठियों के प्रतिनिधि यहाँ रहते थे, उन्हें यह धमकी दी कि यदि वे रोम साम्राज्य की व्यापारिक नीति में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करेंगे तो उनके स्वदेशों में उनकी मूल कोठियों के कारबार तक पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इस धमकी के कारण बीच का तनाव ढीला पड़ा। केवल वे ही ग्रीक और मिस्री व्यापारी सेठ अमहोज़ के साथ रह गए जो वर्षों से भारत की भूमि पर ही रह-बस गए थे तथा जिनका अपने देशों में कम स्वार्थ बच गया था। अमहोज़ ही एक ऐसा व्यापारी था जिसकी मिस्र के सिकंदरिया नगर में बहुत बड़ी व्यापारी कोठी थी। पान्सा मुख्यतः अपनी धमकी से अमहोज़ को ही तोड़ना चाहते थे, परन्तु वह टस-से-मस न हुआ। वह कहता था कि ‘माना हमारा देश आज रोमनों का दास है, परन्तु इससे रोमनों की स्थिति कुछ अच्छी होकर भी बदल नहीं जाती। यदि हमारे देश के व्यापार को वे फलने-फूलने देंगे तो उन्हें भी हमसे प्रचुर धन मिलता रहेगा और यदि अपने घमंड में हमें नष्ट कर देंगे तो हमारे साथ-साथ स्वयं वे भी नष्ट हो जाएँगे। फिर मिस्र में मन्दिरों, देवी-देवताओं और हमारे पुरखों के समाधिस्थलों के सिवा और रह ही क्या जाएगा! रोमनों का साम्राज्य मिस्र के व्यापारियों की लक्ष्मी और उसके दासों के श्रम पर टिका है। रोम हमारे देवी-देवताओं का दास है और अपने देवी-देवताओं की शक्ति जगाने के परम मन्त्र अभी हमारे देश में हैं।’

अमहोज़ की इन बातों का प्रभाव यूनानियों और मिस्रियों पर पड़ता था। रोम और भारत के सीधे व्यापार से जिन देशों के व्यापारियों को हानि होती थी वे सब भी अमहोज़ के साथ थे, यद्यपि पान्सा ने उनमें से अनेक प्रमुख व्यक्तियों को व्यापारिक रिश्वत देकर अपनी ओर फोड़ लिया था।

मानाइहन चेट्टियार ने स्थिति को देख अपनी नीति परिवर्तित करके सन्तुलन करने का प्रयत्न किया। मानाइहन विदेशी व्यापारी की नीति से ही नहीं, स्वदेशी व्यापारियों के असन्तोष से भी दबे। व्यापारियों में जो आर्थिक उथल-पुथल उनकी नई नीति के कारण हो चुकी थी उसे उन्होंने वहीं ठहरा दिया। हाँ, पान्सा सेठ के बुरे दिन वहीं तक न ठहरे, और आगे आए। मानाइहन के संकेत से पान्सा के जलसार्थ दो बार आन्ध्र के जलदस्युओं द्वारा लूटे गए। पान्सा को करारा आर्थिक आघात लगा। वह प्रायः निर्धन ही हो गया। इसके बाद समाचार फैला कि स्वयं कोवलन सेठ और कन्नगी सेठानी एक बहुत बड़ा जलसार्थ लेकर विदेशयात्रा को जा रहे हैं। लाभ के लोभी व्यापारीगण मानाइहन के अंकुश में आ गए।
हीरा, मोती, शेष, अक्रीक, लोहिताक, स्फटिक, जमुनिया, कोपल, वैडूर्य, नीलम, माणिक्य, पिरोजा, कोरंड आदि रत्नों का उत्तम भंडार; कालीमिर्च, जटामाँसी, दालचीनी, इलायची, सोंठ, गुगुल, बायविडंग, शर्करा, अगुरतिल का तैल, नील, सूती कपड़े, आबनूस की लकड़ी, हाथीदाँत, कछुए की खोपड़ियाँ आदि मिस्र, ग्रीस और रोम के बाज़ारों में अत्यधिक माँगवाली वस्तुओं से लदे पचास पोत लेकर कोवलन यात्रा पर जा रहा था। उसके संगठन से युक्त अनेक युवक व्यवसायियों की पत्तीदारी भी इस माल में निश्चित हो चुकी थी। मात खाए विरोधियों के लिए यह दंड था, दोनों पक्षों के बीच डगमगाते हुए व्यवसायियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए यह अचूक प्रलोभनपाश था। इसके अतिरिक्त नवयुवकों में स्वतन्त्र रूप से व्यावसायिक गति उत्पन्न करने तथा नए निर्णय करने में पत्तीदारी की योजना ने बड़ा हाथ बँटाया।

कोवलन और कन्नगी की यात्रा का सुदिन आ पहुँचा। सवेरे ही स्नान तथा अपने इष्ट देवताओं की पूजा करने के बाद श्रमणों और ब्राह्मणों को वस्त्र, द्रव्य आदि दान दिए। कोवलन श्रावक था और मानाइहन पांचरात्र धर्म के अनुयायी। दोनों ही धर्मों के गुरुओं ने अपनी श्रद्धा के मन्त्रों से वर-वधू की कल्याण कामना की। फिर ज्योतिषियों की धूप-घटिका से लग्न साधकर सुन्दर, कौशेय वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो पति-पत्नी ने विदेश के लिए प्रस्थान किया। गुरुजन, प्रियजन एवं पुरजन उन्हें विदा देने के लिए नौकाघाट पर आए थे। मासात्तुवान अपने पुत्र का अन्तिम आलिंगन करते हुए रो पड़े। मानाइहन उन्हें सान्त्वना देते अश्रुकम्प से अस्थिर हो गए। गुरुजनों की करुणा कोवलन और कन्नगी के पाँव बाँधती थी; मित्रों का उत्साह नई उमंगें भरता था और निश्चय दोनों ही भावों को समेटकर विदा के क्षण को निकट ला रहा था। वर-वधू ने कावेरी नदी की पूजा की; दही, दूध, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित किए; भक्ष्य, बलि, विलेपन, अंकुश और रत्नालंकारों से कावेरी गंगा को सन्तुष्ट किया। शूद्र स्त्रियाँ गम्भीर स्वर में विदा के मंगलगान गाती रहीं। तूर्य बजा, लंगर खोल दिया गया, कन्नगी और कोवलन सोल्लास एक नई अनुभवसृष्टि रचने के लिए गतिमान हो गए।

उस दिन माधवी दिन-भर, रात-भर अपने कक्ष से बाहर न निकली। न खाया, न बोली। न उसके कक्ष में दीया जला। न वह रोयी ही। केवल तकिए में मुँह छिपाए पड़ी रही, पड़ी रही।

मानव कौल के उपन्यास 'अंतिमा' से किताब अंश

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