एक घण्टे में लहसुन छीलती है
फिर भी छिलके रह जाते हैं
दो घण्टे में बर्तन माँजती है
फिर भी गन्दगी छोड़ देती है
तीन घण्टे में रोटी बनाती है
फिर भी जली, कच्ची-पक्की
कुएँ से पानी लाती है
मटकी फोड़ आती है,
जब भी ससुराल आती है
हर बार दूसरी ढाणी का
रस्ता पकड़ लेती है
औरतें छेड़ती हैं तो चुप हो जाती है
ठसक से नहीं रहती, बेमतलब हँसने लगती है
खाने-पीने की कोई कमी नहीं है
फिर भी रोती रहती है—
“कांई लखण कोनी थारी बहण में!”
यह सब
बहिन की सास ने कहा मुझसे
चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए
जब पिछली बार बहन से मिलने गया।
मैंने घर आकर माँ से कहा
कि छुटकी पागल हो गई है
सास ने उसको ज़िन्दा ही मार दिया
कुएँ में पटक दिया तुमने उसे!
माँ ने कहा
लूगड़ी के पल्ले से आँख पोंछते हुए—
“तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो
म्हारी बेटी खूब मौज में है!”
विजय राही की कविता 'देवरानी-जेठानी'