गहरे अँधेरे में,
मद्धिम आलोक का
वृत्त खींचती हुई
बैठी हो तुम!

चूल्हे की राख-से
सपने सब शेष हुए।
बच्चों की सिसकियाँ
भीतों पर चढ़ती
छिपकलियों सी बिछल गईं।

बाज़ारों के सौदे जैसे
जीवन के क्षण
तुम से स्वेद-मुद्रा ले
तौल दिए समय ने।

बासी सब्ज़ियों-से
बासी ये क्षण।

दिन अगर तुम्हारे लिए
झंझट की बेल है,
रात किसी बासन पर
मली हुई राख है।
तुम पति के अंक में
वधू नहीं, वध्य हो,
साँस भी विवशता
उच्छवास भी विवशता है।

बच्चे नहीं चलते हैं
चलते हैं प्रश्नचिह्न!
जीवन के प्रश्नचिह्न!
आँगन के प्रश्नचिह्न!
मगर तुम निरुत्तर हो।
ज़िन्दगी निरुत्तर है।

प्राण! उठो, उठो, उठो।
गिरना अनिवार्य नहीं
उठना अनिवार्य है।

बच्चों की सिसकी
साँसों की प्रत्यंचा से
तीरों-सी छूटेगी।
बच्चों के नारों की
कुँजी से द्वार
नए युग के खुल जाएँगे।
बच्चों के शब्द
समय के खेतों को
हल बन जोतेंगे।
बच्चे, मैली-मैली सदियों को
आँसू से,
धो देंगे, धो देंगे।
ओ पीड़ित आत्मा!
एक और आत्मा को
कुहरे में जन्म दो—
सूर्य के लिए।

श्रीकान्त वर्मा की कविता 'बुख़ार में कविता'

Book by Shrikant Verma:

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।