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वसई का क़िला
"मेरा बचपन इस क़िले की खुरदुरी और सख़्त दीवारों पर चलते, इस की ढलवानों पर पांव जमाकर खड़ी हुई बकरीयों का दीदार करते और इस के पेट में मौजूद घास के हरे क़ालीनों पर लेटते, खेलते और दौड़ते गुज़रा है। वसई का क़िला आज भी अपनी तहज़ीब में उतनी ही झुर्रियों को जगह देने का क़ाइल है, जिससे उस का सोलहवीं सदी वाला मेक-अप ख़राब ना हो।"