Tag: A poem on World Population Day
कितनी मूंग दलेगें आखिर, हम इस धरा की छाती पर?
'कितनी मूंग दलेगें आखिर?' - विजय 'गुंजन'
कितनी मूंग दलेगें आखिर,
हम इस धरा की छाती पर?
अनियंत्रित आबादी के पांव तले
वसुंधरा की छाती पर
जंगलों में है...