Tag: Adarsh Bhushan
दिसम्बर
दिसम्बर एक दौड़ है
पतली-सी रेलिंग पर भागती हुई
गिलहरी की दौड़
जिसे कहीं जाना नहीं है
रुकना है यहीं
बग़ल के किसी सूखते
सेमल की कोटर में
ठण्ड के थोड़ा...
लोहा और कपास
आँतों को पता है
अपने भूखे छोड़े जाने की समय सीमा
उसके बाद वे निचुड़तीं
पेट कोंच-कोंचकर ख़ुद को चबाने लगती हैं
आँखों को पता है
कितनी दुनिया देखने...
त्राण
दो ज़िन्दा प्रेमियों का प्रेम
कभी एक जैसा नहीं दिखता
यह हो सकता है कि
एक मन देखता हो और
एक त्राण की सम्भावना
दो ज़ंग खायीं तलवारें
अलग-अलग युद्धों से आयी...
वे बैठे हैं
वे बैठे हैं
पलथी टिकाए
आँख गड़ाए
अपनी रोटी बाँधकर ले आए हैं,
रखते हैं तुम्हारे सामने
अपने घरों के चूल्हे,
आश्वासन नहीं माँगते तुमसे
माँगते हैं रोटी के बदले रोटी
अपने...
सुनो तानाशाह!
सुनो तानाशाह!
एक दिन चला जाऊँगा
एक नियत दिन
जो कई वर्षों से मेरी प्रतीक्षा में बैठा है
मेरी जिजीविषा का एक दिन
जिसका मुझे इल्म तक नहीं है—
क्या...
यायावर
जो अप्राप्य है मुझे
उसकी तलाश में भटकूँगा
ध्रुव की तरह स्थापित हो जाऊँगा किसी दिशा में
या नचिकेता की तरह
यात्रा से उत्तरोत्तर लौटूँगा
स्मृतियों की सतहें बनाऊँगा
एक...
अक्टूबर
यह अक्टूबर फिर से बीतने को है
साल-दर-साल इस महीने के साथ
तुम बीत जाती हो
एक बार पूरा बीतकर भी
फिर वहीं से शुरू हो जाता है...
मत भूलना
मत भूलना कि
हर झूठ एक सच के सम्मुख निर्लज्ज प्रहसन है
हर सच एक झूठ का न्यायिक तुष्टिकरण
तुम प्रकाश की अनुपस्थिति का
एक टुकड़ा अंधकार
अपनी आँखों...
ग़ायब लोग
हम अक्षर थे
मिटा दिए गए
क्योंकि लोकतांत्रिक दस्तावेज़
विकास की ओर बढ़ने के लिए
हमारा बोझ नहीं सह सकते थे
हम तब लिखे गए
जब जन गण मन लिखा...
यात्रा
मेरी सारी यात्राएँ
किसी अगणित एकान्त के
ऊहापोह में डूबी हुई हैं
इस देह को लिए फिरता मैं
अपने शयन कक्ष से एक
क्रमबद्ध पदचाप की ताल पर
किसी यात्रा...
आदमियत से दूर
आदमी क्या करता है
जुगुप्साओं से आक्रांत होकर
चीख़ने के बाद
गहरे मौन में चला जाता है
आदिम हथियारों पर धार लगाता है
नोचता-बकोटता है
फिर नाख़ून काटकर
अपने सभ्य होने का...
बंदोबस्त
शहर ख़ाली हो चुके हैं
लोगों से,
जब तक कोई बसता था यहाँ
उदासी ढोता था
ताने खाता था और
लानत ओढ़कर सो जाता था
खिन्न और अप्रसन्न लोग
भड़के और...