Tag: Ahmad Faraz
मुझसे पहले
मुझसे पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा, उसने
शायद अब भी तेरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो
एक बेनाम-सी उम्मीद पे अब भी शायद
अपने ख़्वाबों के...
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को सम्भाल रक्खा है
मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना
मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब एतिदाल रक्खा...
ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें
ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें
साक़िया साक़िया सम्भाल हमें
रो रहे हैं कि एक आदत है
वर्ना इतना नहीं मलाल हमें
ख़ल्वती हैं तेरे जमाल के हम
आइने...
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू...
ख़्वाबों के ब्योपारी
हम ख़्वाबों के ब्योपारी थे
पर इसमें हुआ नुक़सान बड़ा
कुछ बख़्त में ढेरों कालक थी
कुछ अब के ग़ज़ब का काल पड़ा
हम राख लिए हैं झोली...
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों...
भली-सी एक शक्ल थी
भले दिनों की बात है
भली-सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम-सी
न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर...
अब के हम बिछड़े तो शायद
'Ab Ke Hum Bichde To Shayad', a ghazal by Ahmad Faraz
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल...
मत क़त्ल करो आवाज़ों को
तुम अपने अक़ीदों के नेज़े
हर दिल में उतारे जाते हो
हम लोग मोहब्बत वाले हैं
तुम ख़ंजर क्यूँ लहराते हो
इस शहर में नग़्मे बहने दो
बस्ती में...
मैं और तू
रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती
कोई घटता हुआ, बढ़ता हुआ, बेकल साया
एक दीवार से कहता कि मिरे साथ चलो
और ज़ंजीर-ए-रिफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार
अपने...