Tag: Akhtar ul iman
आमादगी
एक-इक ईंट गिरी पड़ी है
सब दीवारें काँप रही हैं
अन-थक कोशिशें मेमारों की
सर को थामे हाँफ रही हैं
मोटे-मोटे शहतीरों का
रेशा-रेशा छूट गया है
भारी-भारी जामिद पत्थर
एक-इक करके...
मस्जिद
'जिनके घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते...'
इस पंक्ति से सदियों के लिए अमर हो जाने वाले अख़्तर-उल-ईमान नज़्म के एक उम्दा शायद रहे हैं, जिन्होंने अपनी यथार्थवादी नज़्मों के रूप में उर्दू अदब के लिए एक नायाब विरासत छोड़ी है.. आज इनकी सालगिरह पर पढ़िए उन्हीं की एक नज़्म 'मस्जिद'!
"एक वीरान सी मस्जिद का शिकस्ता सा कलस
पास बहती हुई नद्दी को तका करता है
और टूटी हुई दीवार पे चंडोल कभी
गीत फीका सा कोई छेड़ दिया करता है..."