Tag: Amrita Bharti
मेरा अपनापन
मैंने
अपनी उपस्थिति का अर्थ
इन दरख़्तों के बीच
कितनी देर में जाना
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं।
कितनी देर में आयी वह...
अपनी ही अन्यत्रता
मैं भाग रही हूँ।
बाहर
अँधेरा हो गया
मेरे रास्तों पर
पर अन्दर अब तक
रोशनी नहीं हुई।
स्मृति में
दबी हुई आग को
अलग कर रही हैं
टूटी हुई टहनियों की तरह
उँगलियाँ
और
ठण्डी...
पहचान
या तो वह
बहुत पास था
या बहुत दूर
और
ये दोनों
वहाँ नहीं थे
जहाँ मैं थी।
मानो
मैं एक अन्तराय थी
एक 'बीच'—
एक परिचय
उसके निकटतम होने का
उसकी दूरस्थता का
मानो
मैं एक पहचान...
तुम कहाँ हो
तुम कहाँ हो?
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
शायद अन्दर हो
पर हर कन्दरा के मुख पर
भारी शिला का बोझ है
मैं भी
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
शायद अन्दर हूँ
पर यह जो बाहर...
पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा
वह एक समय था।
मैं पहाड़ों से चाँदनी की तरह उतरा करती थी
और मैदानों में नदी की तरह फैल जाती थी
मेरे अन्दर हिम-संस्कृति की गरिमा...
जब कोई क्षण टूटता
वह
मेरी सर्वत्रता था
मैं
उसका एकान्त—
इस तरह हम
कहीं भी अन्यत्र नहीं थे।
जब
कोई क्षण टूटता
वहाँ होता
एक अनन्तकालीन बोध
उसके समयान्तर होने का
मुझमें।
जब
कोई क्षण टूटता
तब मेरा एकान्त
आकाश नहीं
एक छोटा-सा...