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Birsa Munda

बिरसा मुंडा की याद में

'लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ' से अभी-अभी सुन्न हुई उसकी देह से बिजली की लपलपाती कौंध निकली जेल की दीवार लाँघती तीर की तरह जंगलों में पहुँची एक-एक दरख़्त, बेल, झुरमुट पहाड़, नदी,...
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क्यों बीरसा मुण्डा ने कहा था कि वह भगवान है?

बीरसा मुण्डा, जिसके पूर्वज जंगल के आदि पुरुष थे और जिन्होंने जंगल में जीवन को बसाया था, आज वही बीरसा और उसका समुदाय जंगल की धरती, पेड़, फूल, फल, कंद और संगीत से बेदखल कर दिया गया है! उनके पास खाने को नमक नहीं, लगाने को तेल नहीं, पहनने को कपड़ा नहीं! जमींदार और महाजनों के कर्जों में डूबी यह जाति खुद को मुण्डा कहलाने में भी शर्म महसूस करती है। सदियों के दमन ने उन्हें विश्वास दिला दिया है कि मुण्डाओं का तो जीवन ही है इस श्राप को भोगते रहना। और नए कानूनों के चलते, किस्मत, अंधविश्वासों और टोन-टोटकों में फँसा यह समुदाय जंगल के कठोर जीवन में रहने के लायक भी नहीं रहा। ऐसे में बीरसा, एक छोटी उम्र का नौजवान मिशन के स्कूल में थोड़ा पढ़कर, बंसी बजाकर, नाच-गाकर एक दिन खुद को इस समुदाय का भगवान घोषित कर देता है, और मुण्डा लोग उसे भगवान मानने लगते हैं, क्योंकि उन्हें बताया गया था कि एक दिन भगवान मुण्डाओं में ही जन्म लेगा और उनका उद्धार करेगा। बीरसा ने - जिसकी अपने समुदाय के अधिकारों व स्वाभिमान के लिए लड़ने के कारण अंग्रेजों द्वारा एक साजिश के तहत पच्चीस साल की छोटी उम्र में हत्या कर दी जाती है - ऐसा क्यों किया और ऐसा करने से उसे क्या मिला, इसकी एक समझ मिलती है महाश्वेता देवी के उपन्यास 'जंगल के दावेदार' के इस अंश से! ज़रूर पढ़िए!
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