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देह
एक देह को चलते या जागते देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं
जो गंध और स्पर्श का घर होते हुए भी उसके पार का माध्यम...
रिश्तों की रेत
तुमने कब चाहा
रिश्तों की तह तक जाना
देह तक ही सीमित रहा
तुम्हारा मन
देह को नापती तुम्हारी आँखों ने
देखना चाहा ही नहीं
मन के घुमड़ते ज्वार
देह को...
ज़ख़्मी गाल
'Zakhmi Gaal', a poem by Rahul Boyal
जब मैं उससे मिला
उसकी आँखें भर आयीं
मुझे ख़बर ही न पड़ी
कब मेरा सीना ख़ाली हो गया
मैंने बस उसे...
जिस्म के उस पार
अंधेरे कमरे में बैठा हूँ
कि भूली-भटकी कोई किरन आ के देख पाए
मगर सदा से अंधेरे कमरे की रस्म है कोई भी किरन आ के...
दो जिस्म
'Two Bodies', a poem by Octavio Paz
अनुवाद: पुनीत कुसुम
दो जिस्म रूबरू
कभी-कभी हैं दो लहरें
और रात है महासागर
दो जिस्म रूबरू
कभी-कभी हैं दो पत्थर
और रात रेगिस्तान...
तुम्हारी हथेली का चाँद
इस घुप्प घने अँधेरे में
जब मेरी देह से एक-एक सितारा निकलकर
लुप्त हो रहा होता है आसमान में
तुम्हारी हथेली का चाँद,
चुपके-से चुनता है,
वो एक-एक सितारा...
अगर तस्वीर बदल जाए
सुनो, अगर मैं बन जाऊँ
तुम्हारी तरह प्रेम लुटाने की मशीन
मैं करने लगूँ तुमसे तुम्हारे ही जैसा प्यार
तुम्हारी तरह का स्पर्श जो आते-जाते मेरे गालों पे...
दो जिस्म
दो जिस्म रहते हैं इस घर में
जो दिन के
उजालो में दूर
रात के अंधेरो में लफ़्ज़ खोलते हैं
एक वो है जो
सुबह की उस पहली चाय से
रात के...