Tag: Dinkar
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न...
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती...
अवकाश वाली सभ्यता
मैं रात के अँधेरे में
सितारों की ओर देखता हूँ
जिनकी रोशनी भविष्य की ओर जाती है
अनागत से मुझे यह ख़बर आती है
कि चाहे लाख बदल...
ईश्वर की देह
किताब 'आत्मा की आँखें' से
कविता: डी एच लॉरेंस
अनुवाद: रामधारी सिंह दिनकर
ईश्वर वह प्रेरणा है,
जिसे अब तक शरीर नहीं मिला है।
टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल,
जो...
भगवान के डाकिए
पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं—
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लायी चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और...