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निकानोर पार्रा की कविताएँ (दो)
आख़िरी प्याला
इस बात को पसन्द करो या मत करो
हमारे पास गिनती के तीन विकल्प होते हैं—
भूतकाल, वर्तमान और भविष्य
और दरअसल तीन भी नहीं
क्योंकि दार्शनिक...
क्रांति: दो हज़ार पचानवे
हा हा हा हा हा हा
यह भी कैसा साल है
मैं ज़िंदा तो हूँ नहीं
पर पढ़ रहा है मुझको कोई
सोच रहा है कैसे मैंने
सोचा है तब...
एक उमड़ता सैलाब
हममें ही डूबा है वह क्षितिज
जहाँ से उदित होता है
सबका आकाश
फेंकता ऊषाएँ
ऋतुएँ, वर्ष, संवत्सर
उछालता
व्यर्थ है प्रतीक्षा
उन अश्वों के टापों की
जो दो गहरे लम्बे सन्नाटों
के...