Tag: Gajanan Madhav Muktibodh

Muktibodh

भूल-ग़लती

भूल-ग़लती आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज़ पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाये सब कतारें बेजुबाँ बेबस...
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क्‍लॉड ईथरली

"जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज़ जो लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।""हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।""हाँ, मैं उस भद्रवर्ग का अंग हूँ कि जिसे अपनी भद्रता के निर्वाह के लिए अब आर्थिक कष्‍ट का सामना करना पड़ता है, और यह भाव मन में जमा रहता है कि नाश सन्निकट है।""हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम (उन) उच्‍च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य, भद्र हो जायें यानी दुरुस्त हो जायें या उसी पागलखाने में पड़े रहें!""आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्‍मा आ गई है, चेतन में स्‍व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्‍य का आदर्श - भले ही वह बुरा समाज क्‍यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्‍य है।..."
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सहर्ष स्वीकारा है

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है सहर्ष स्वीकारा है इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है। गरबीली ग़रीबी यह, ये गम्भीर अनुभव...
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विचार आते हैं

विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चाँद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी...
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मैं तुम लोगों से दूर हूँ

यह कविता यहाँ सुनें: https://youtu.be/0UzY9lHWRUw 'Main Tum Logon Se Door Hoon', a poem by Gajanan Madhav Muktibodh मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी...
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पता नहीं

1 पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले, किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!! यह राह ज़िन्दगी की जिससे जिस जगह मिले है ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी...
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पक्षी और दीमक

"मैं उसकी आँखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूँ। प्रेमी जो हूँ, अपने व्‍यक्तित्‍व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।" "इस धुँधले अँधेरे कमरे में वह मुझे सुंदर दिखाई दे रही है। दीवार पर गिरा हुआ प्रकाश, नीली चूड़ियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्यास के पन्नों पर, ध्यानमग्न कपोलों पर और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में (वह उपन्यास के जगत में और मैं अपने खयालों के रास्तों पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधुले कमरे में गहन साहचर्य के संबंध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।"
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काठ का सपना

"धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका..!" ये पंक्तियाँ निराला की लम्बी कविता, उनके द्वारा अपनी पुत्री सरोज की याद में लिखे गए शोकगीत 'सरोज-स्मृति' की पंक्तियाँ हैं। लेकिन आप जब मुक्तिबोध की यह कहानी 'काठ का सपना' पढ़ेंगे तो इस कहानी को परिभाषित करने के लिए निराला की इन पंक्तियों से बेहतर आपको कुछ नहीं मिलेगा.. यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस कहानी में लेखक की पुत्री का नाम भी 'सरोज' है! एक उद्धरण प्रस्तुत है, पूरी कहानी लिंक में- "उसके पिता अपनी बालिकाओं को देख प्रसन्न नहीं होते हैं। विक्षुब्ध हो जाता है उनका मन। नन्हीं बालिका सरोज का पीला उतरा चेहरा, तन पे फटा हुआ सिर्फ एक 'फ्राक' और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्त्तव्य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्त्तव्य की जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेगें, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से ये चिढ़ जाते हैं। और वे उस नन्हीं बालिका को डाँट कर पूछते हैं, 'यहाँ क्यों बैठी है? अंदर क्यों नहीं जाती।'"
Muktibodh

सौन्‍दर्य के उपासक

"ऑंखों में अश्रु थे और अधरों पर सुधा। यह था मेरा प्रथम प्रणय-चुम्बन।" "तुम्हारा हृदय कितना उच्च है, कितनी सहानुभति से भरा है अनिल। हम कवि लोग अपनी भावनाओं को ही घूमाने-फिराने में लगे रहते हैं। क्या किसी कवि को तुमने कार्य-कवि होते भी देखा है। होते भी होंगे पर बहुत कम। हमारी कल्पनाएँ क्या भूकम्प त्रस्त लोगों को कुछ भी सुख पहुँचा सकती हैं। नहीं, अनिल, नहीं।"
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मुक्तिबोध – ‘एक साहित्यिक की डायरी’

मुक्तिबोध की किताब 'एक साहित्यिक की डायरी' से उद्धरण | Quotes from 'Ek Sahityik Ki Diary', a book by Muktibodh   "वर्ग-विभाजित समाज में व्यक्ति का...
Dyuti Ki Kali - Muktibodh

द्युति की कली (हस्तलिखित)

  शाम की हलकी गुलाबी शान्ति में निष्पाप नीरव ज्योति-सी द्युति की कली। इस मोतिया आकाश की द्युति-तारिका। गृह-द्वार आंगन में बिछी जो मौन कमरे में रमी वह मोतिया आकाश की...
Muktibodh

शून्य

भीतर जो शून्य है उसका एक जबड़ा है जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं; उनको खा जाएँगे, तुमको खा जाएँगे। भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह हमारा स्वभाव है, जबड़े...
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