Tag: Mohan Rakesh

aadhe adhoore mohan rakesh

आधे-अधूरे : एक सम्पूर्ण नाटक

आधे-अधूरे: एक सम्पूर्ण नाटक समीक्षा: अनूप कुमार मोहन राकेश (1925-1972) ने तीन नाटकों की रचना की है— 'आषाढ़ का एक दिन' (1958), 'लहरों के राजहंस' (1963)...
Uski Roti - Mohan Rakesh

उसकी रोटी

बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सड़क...
Mohan Rakesh

साहित्यकार की समस्याएँ

'साहित्य गोष्ठी' चंडीगढ़ द्वारा आयोजित सेमिनार में पढ़ने के लिए लिखा गया आलेख एक साहित्यकार के जीवन की मूल समस्या है साहित्यकार के रूप में...
Mohan Rakesh

मिस पाल

वह दूर से दिखायी देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी। फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसंदेह, वह मिस...
Mohan Rakesh

कहानी क्यों लिखता हूँ?

'साहित्य और संस्कृति' से क्यों?... इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। जीवन में हम कोई भी काम क्यों करते हैं? हँसते क्यों हैं? रोते...
Indian Woman

आषाढ़ का एक दिन

दृश्य - 1 मल्लिका : नहीं, तुम काशी नहीं गये। तुमने संन्यास नहीं लिया। मैंने इसलिए तुमसे यहाँ से जाने के लिए नहीं कहा था।...
Mohan Rakesh

मलबे का मालिक

"वली, यह मस्जिद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरुद्वारा नहीं बना दिया!" "चुप कर, ख़सम-खाने! रोएगा, तो वह मुसलमान तुझे पकड़कर ले जाएगा! कह रही हूँ, चुप कर!" "आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमीगेट का बाज़ार पूरा नया बना है? कृष्णनगर में तो कोई ख़ास तब्दीली नहीं आयी? वहाँ का रिश्वतपुरा क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है?... कहते हैं, पाकिस्तान में अब बुर्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है?..."
Adhe Adhure

आधे-अधूरे

"वही महेन्द्र जो दोस्तों के बीच दब्बू-सा बना हलके-हलके मुस्कराता है, घर आ कर एक दारिंदा बन जाता है। पता नहीं, कब किसे नोच लेगा, कब किसे फाड़ खाएगा!"
Mohan Rakesh

परमात्मा का कुत्ता

"मेरा नाम है बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ़्तर का दिया हुआ है। मैं बारह सौ छब्बीस बटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरु का कुत्ता- बारह सौ छब्बीस बटा सात।" "एक तुम्हीं नहीं, यहाँ तुम सबके-सब कुत्ते हो," वह आदमी कहता रहा, "तुम सब भी कुत्ते हो, और मैं भी कुत्ता हूँ। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि तुम लोग सरकार के कुत्ते हो- हम लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ़ से भौंकते हो। मैं परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँ, और उसकी तरफ़ से भौंकता हूँ। "तकरीबन-तकरीबन पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन-तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है, कि पहले मैं पूरा होता हूँ! एक तरफ़ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ़ परमात्मा का हुनर है! तुम्हारा तकरीबन-तकरीबन अभी दफ़्तर में ही रहेगा और मेरा तकरीबन-तकरीबन कफ़न में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई ख़र्च करके दो लफ़्ज ईज़ाद किये हैं- शायद और तकरीबन। 'शायद आपके काग़ज़ ऊपर चले गये हैं- तकरीबन-तकरीबन कार्रवाई पूरी हो चुकी है!' शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो! तकरीबन से निकालो और शायद में गर्क़ कर दो। 'तकरीबन तीन-चार महीने में तहक़ीक़ात होगी। ...शायद महीने-दो महीने में रिपोर्ट आएगी।' मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है, तो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के गाहक ये सब खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो...।"
Mohan Rakesh

अपने सिवा हर एक की हँसी-मुस्कराहट अजीब लगती है

"अपने सिवा हर एक की हँसी-मुस्कराहट अजीब लगती है। अस्वाभाविक। लगता है, मौत के साये में कैसे कोई हँस-मुस्करा सकता है। पर फिर अपने गले से भी कुछ वैसी आवाज़ सुनाई देती है।"
Girgit

गिरगिट का सपना

क्या आपके पास अपने नाती-पोतों को सुनाने वाली कहानियाँ ख़त्म हो चुकी हैं? या आप एक ही कहानी इतनी बार सुना चुके हैं कि वे वह कहानी आपसे आगे-आगे आपको ठीक करते सुनाते चलते हैं? अगर हाँ, तो लीजिए मोहन राकेश की एक कहानी, जो बच्चों को सुनाए जाने पर न केवल उन्हें रोमांचित करेगी बल्कि यह सीख भी देगी कि जो हमें प्राप्त है, वह किसी कारण से है और उससे संतुष्ट रहना मानवों के लिए एक धारणीय गुण है! :)
aadhe adhoore mohan rakesh

‘आधे-अधूरे’: अपूर्ण महत्त्वाकांक्षाओं की कलह

'मोहन राकेश का नाटक आधे अधूरे' - यहाँ पढ़ें   मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' एक मध्यमवर्गीय परिवार की आंतरिक कलह और उलझते रिश्तों के साथ-साथ...
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