Tag: Muktibodh

Muktibodh - Premchand

मेरी माँ ने मुझे प्रेमचन्द का भक्त बनाया

एक छाया-चित्र है। प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर सस्मित। प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर...
Muktibodh

मलय के नाम मुक्तिबोध का पत्र

राजनाँद गाँव 30 अक्टूबर प्रिय मलयजी आपका पत्र यथासमय मिल गया था। पत्रों द्वारा आपके काव्य का विवेचन करना सम्भव होते हुए भी मेरे लिए स्वाभाविक नहीं...
Muktibodh

तुम्हारी असलियत

तुम्हारी असलियत की संगदिल ख़ूँख़ार छाती पर हमारी असलियत बेमौत हावी है। तुम्हारी मौत आयी है हमारे हाथ से होगी, सुलगते रात में जंगल, लपट-से लाल, गहरा लाल काला...
Muktibodh - Shamsher Bahadur Singh

शमशेर बहादुर सिंह के नाम पत्र

शमशेर बहादुर सिंह को मुक्तिबोध का पत्र घर न० 86, विष्णु दाजी गली, नई शुक्रवारी, सरकल न० 2 नागपुर प्रिय शमशेर, कुछ दिन पूर्व श्री प्रभाकर पुराणिक को लिखे...
Muktibodh

प्रश्‍न

एक लड़का भाग रहा है। उसके तन पर केवल एक कुर्ता है और एक धोती मैली-सी! वह गली में भाग रहा है मानो हज़ारों...
Muktibodh

जनता का साहित्य किसे कहते हैं?

ज़िन्दगी के दौरान जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक़ तो हमारे यहाँ सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवक़ूफ़...
Muktibodh

एक-दूसरे से हैं कितने दूर

एक-दूसरे से हैं कितने दूर कि जैसे बीच सिन्धु है, एक देश के शैल-कूल पर खड़ा हुआ मैं और दूसरे देश-तीर पर खड़ी हुईं तुम। फिर भी...
Muktibodh

बहुत दिनों से

मैं बहुत दिनों से, बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना, बहना, बहना मेघों की आवाज़ों से कुहरे की...
Muktibodh

मुक्तिबोध की याद

हाँ, सितम्बर का महीना हर साल हमें मुक्तिबोध की याद दिलाएगा—क्योंकि गत वर्ष इसी महीने उनका देहांत हुआ। जून के महीने में जब वे...
Muktibodh

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

'Brahmarakshas Ka Shishya', a story by Gajanan Madhav Muktibodh उस महाभव्य भवन की आठवीं मंज़िल के ज़ीने से सातवीं मंज़िल के ज़ीने की सूनी-सूनी सीढ़ियों पर...
Muktibodh

मैं उनका ही होता

मैं उनका ही होता जिनसे मैंने रूप भाव पाए हैं। वे मेरे ही हिये बँधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा...
Muktibodh

तुम्हारा पत्र आया

तुम्हारा पत्र आया, या अँधेरे द्वार में से झाँककर कोई झलक अपनी, ललक अपनी कृपामय भाव-द्युति अपनी सहज दिखला गया मानो हितैषी एक! हमारे अन्धकाराच्छन्न जीवन में विचरता है मनोहर सौम्य...
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