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अपने आँगन से दूर
विभाजन के बाद जिन शरणार्थियों का जहाँ दाव लगा, उन्होंने उन घरों और वस्तुओं पर अधिकार कर लिया, और यह सरहद के दोनों तरफ हुआ! ऐसे में आलिया को क्या पता कि उसके मामू उसे किन के घर ले आए हैं और यह जो मूर्ति रखी है, जिसके आसपास फूल पड़े हैं और एक पीला डोरा लटक रहा है, यह कोई ख़ास मूर्ति है या सिर्फ एक खिलौना!
शरणदाता
"देखो, बेटा, तुम मेरे मेहमान, मैं शेख साहब का, है न? वे मेरे साथ जो करना चाहते हैं, वही मैं तुम्हारे साथ करना चाहता हूँ। चाहता नहीं हूँ, पर करने जा रहा हूँ। वे भी चाहते हैं कि नहीं, पता नहीं, यही तो जानना है। इसीलिए तो मैं तुम्हारे साथ वह करना चाहता हूँ जो मेरे साथ वे पता नहीं चाहते हैं कि नहीं... "
विभाजन की एक और कहानी, जो बताती है कि जब दो सम्प्रदायों की सदियों पुरानी एकता और भाईचारे पर एक 'मंशा' के साथ चोट की जाती है तो ऊपर से दिखने वाला सौहार्द भी ज़्यादा दूरी तक नहीं टिक पाता... कभी मज़बूरी के चलते और कभी बस समय के फेर में!