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सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती...
मूल अधिकार?
क्या कहा—चुनाव आ रहा है?
तो खड़े हो जाइए
देश थोड़ा बहुत बचा है
उसे आप खाइए।
देखिए न,
लोग किस तरह खा रहे हैं
सड़के, पुल और फ़ैक्ट्रियों तक को पचा...
समझदारों का गीत
हवा का रुख़ कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की क़ीमत हम...
नींद और राजकुँवर
'Neend Aur Rajkunwar', a poem by Nirmal Gupt
मैं सोते हुए खर्राटे लेता हूँ
इस बात का मेरे सिवा
सबको अरसे से पता है
कोसों दूर राजमहल में...