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अहमद नियाज़ रज़्ज़ाक़ी की नज़्में
अब
अब कहाँ है ज़बान की क़ीमत
हर नज़र पुर-फ़रेब लगती है
हर ज़ेहन शातिराना चाल चले
धड़कनें झूठ बोलने पे तुलीं
हाथ उठते हैं बेगुनाहों पर
पाँव अब रौंदते...
अपना अपना भाग्य
"इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था", अंग्रेजी में मित्र ने कहा- "मगर, दस-दस के नोट हैं।"
मैंने कहा- "दस का नोट ही दे दो।"
सकपकाकर मित्र मेरा मुँह देखने लगे- "अरे यार! बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।"