Tag: Usha Priyamvada
छुट्टी का दिन
पड़ोस के फ़्लैट में छोटे बच्चे के चीख़-चीख़कर रोने से माया की नींद टूट गई। उसने अलसाई पलकें खोलकर घड़ी देखी, पौने छह बजे...
ज़िन्दगी और गुलाब के फूल
सुबोध काफ़ी शाम को घर लौटा। दरवाज़ा खुला था, बरामदे में हल्की रोशनी थी, और चौके में आग की लपटों का प्रकाश था। अपने...
वापसी
हम में से कितने ही लोग पढ़ाई और नौकरी के कारण अपने घरों से दूर दूसरे शहरों में रहते हैं। और जब कभी अपने घर जाते हैं तो देखते हैं कि हमारे माता-पिता ने हमारी सभी चीज़ों, हमारे कमरों को संजोकर रखा है, जैसे इंतज़ार में बैठे हों हमारे वापिस लौट आने के! वापिस कितने लोग जा पाते हैं, यह कहना मुश्किल है.. लेकिन क्या कभी आपने दूर रहकर नौकरी करते अपने पिता का इंतज़ार किया है? कभी उनकी चीज़ें या कह लें कि उनका स्थान अपने जीवन में संजोकर रखा है? यह सवाल अगर नयी पीढ़ी से पूछा जाए तो जवाब सहज रूप से नहीं मिलता, यही क्या कम विडंबना है!! इसी विडंबना और विडंबना से आगे की बेशर्मी और मूल्य विघटन का द्योतक है उषा प्रियंवदा की यह कहानी..