Tag: Viren Dangwal
रुग्ण पिताजी, शव पिताजी, ख़त्म पिताजी, स्मृति-पिता
रुग्ण पिताजी
रात नहीं कटती? लम्बी, यह बेहद लम्बी लगती है?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है, जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है
ज़ख़्म इसी में...
हमारी नींद
मेरी नींद के दौरान
कुछ इंच बढ़ गए पेड़
कुछ सूत पौधे
अंकुर ने अपने नाम-मात्र, कोमल सींगों से
धकेलना शुरू की
बीज की फूली हुई
छत, भीतर से।
एक मक्खी...
उन्वान
हवाएँ उड़ानों का उन्वान हैं
या लम्बी समुद्र-यात्राओं का
पत्तियाँ
पतझड़ ही नहीं
वसन्त का भी उन्वान हैं
जैसे गाढ़ा-भूरा बादल वर्षा का
अंधकार उन्वान है
चमकीली पन्नियों में लिपटे हमारे...
कैसी ज़िन्दगी जिए
एक दिन चलते-चलते
यों ही ढुलक जाएगी गर्दन
सबसे ज़्यादा दुःख
सिर्फ़ चश्मे को होगा,
खो जाएगा उसका चेहरा
अपनी कमानियों से ब्रह्माण्ड को जैसे-तैसे थामे
वह भी चिपटा रहेगा...
हमारा समाज
यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सिर के ऊपर
बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा...
इतने भले नहीं बन जाना
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी क़ुव्वत, सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया...
पितृपक्ष
मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर तुम्हारे छज्जे पर
पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्ज़ी के लालच में
टेरूँगा नहीं तुम्हें
न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार
रास्ते...
दुश्चक्र में स्रष्टा
कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों की बेटी
छत पर उलटा सरपट भागती
छलती...
समता के लिए
बिटिया कैसे साध लेती है इन आँसुओं को तू
कि वे ठीक तेरे खुले हुए मुँह के भीतर लुढ़क जाते हैं
सड़क पर जाते ऊँट को...
ख़ुद को ढूँढना
एक शीतोष्ण हँसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्दों में
ढूँढना ख़ुद को
ख़ुद की परछाई में
एक न लिए गए चुम्बन में
अपराध...
माँ की याद
'Maa Ki Yaad', a poem by Viren Dangwal
क्या देह बनाती है माँओं को?
क्या समय? या प्रतीक्षा? या वह खुरदरी राख
जिससे हम बीन निकालते हैं...
कवि
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर
चबाता फ़ुरसत से
मैं...