‘Tarang’, a poem by Mukesh Kumar Sinha
निश्चित आयाम और
निश्चित तरंगदैर्घ्य के साथ
फैलता जा रहा उसका
तरंगित ऑरा
बनाती चली गई
भावों के वृत्तों का आरोही क्रम
पता नहीं कब और क्यों
स्नेहिल भावों के बहते
किन्ही दो वृत्तों की परिधि में
फँसते से चले गए
कुछ क्षणिक सा
आकर्षण जैसा सम्मिलन
और साथ ही
परस्पर प्रेमिल तरंगों के
सर्वनिष्ठ से उपज गया
प्रेम जैसा कुछ।
ज़िन्दगी की फ़्रीक्वेंसी मॉड्यूलेशन
गुलाबीपन के साथ
गूँजने लगी आज से
शायद गूजेंगी कल भी।
…है न!
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