‘Tayshuda Paimane’, a poem by Shravan
तयशुदा पैमाने
ढर्रे हैं जो पुराने
परम्पराओं की बीमारी
रीति-रिवाजों की सवारी
ये व्यवस्था हैं ग़ुलामी
दबा देती हैं विद्रोह
जो उग आता है मन के किसी कोने में
जैसे ही महसूस करती है
एक विवेकसम्मत चिंगारी
जो आग बनकर
जलाकर शून्य कर सकती हैं
अतीत की महानता
और संस्कृति का गौरव
तयशुदा पैमाने
ढर्रे हैं जो पुराने
नैतिकता का मायाजाल
संस्कारों का मुण्डमाल
ये व्यवस्था हैं सुसंस्कृत भ्रमजाल
जो नहीं देती अवसर
प्रश्न करने का
विचार करने का
अपने अंतर्मन में गोता लगाने का
नहीं देती कोई अवसर
कि अपने भीतर
कहीं, कभी, किसी समय
जो अंतर्द्वद्व जन्म लेता है
उसे शांत किया जा सके
तयशुदा पैमाने
ढर्रे हैं जो पुराने
चरणबद्ध सामाजिकता
पशुवत मानवता
ये व्यवस्था हैं धार्मिकता
जो बंद करती हैं
मस्तिष्क के पटल
चलाती हैं हमें
किसी लिखित सिद्धांत के
जड़तामूलक बंधनों के दायरे में
और बनाती हैं हमें
एक किताबी मानव
तयशुदा पैमाने
ढर्रे हैं जो पुराने
सत्ता की चापलूस वफ़ादारी
वंशानुगत उत्तराधिकारी
ये व्यवस्था हैं दमनकारी
जो ठोकरों में उड़ाती हैं सर
और बहाती हैं ख़ून
किसी फव्वारे की तरह
खींचती हैं नारी का आँचल
सुनाती हैं दण्ड
सत्य के सारथी को
फिर गूँजती हैं इतिहास के पन्नो में
एक निरकुंश अट्ठहास भरी हँसी
तयशुदा पैमाने
ढर्रे हैं जो पुराने
पितृसत्ता का प्रशिक्षण
लज्जा के मादा शिक्षण
ये व्यवस्था हैं दैहिक भक्षण
जो दीमक की तरह खा गई
देवदासियों की देह
सती के बहाने जिसने
आग में झोंक दिए स्त्री के अधिकार
रुमाल की तरह इस्तेमाल की गई
और वासना पोंछकर
जिसे फेंक दिया गया
मर्दवाद के कचरापात्र में…
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