धवल कुलकर्णी की किताब ‘ठाकरे भाऊ : उद्धव, राज और उनकी सेनाओं की छाया’, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

महाराष्ट्र के सियासी परिदृश्य पर गम्भीरता से विचार करने वाली इस किताब में बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत के दावेदारों, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के राजनीतिक जीवन और उनके राजनीतिक दलों की विकास-यात्रा का व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया गया है। जिससे राज और उद्धव के वैचारिक राजनीतिक टकराव और अलगाव की बेहद दिलचस्प कहानी सामने आती है।

लेखक धवल कुलकर्णी कहते हैं, यह किताब शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के हवाले से उन उद्देश्यों और प्रक्रियाओं की गम्भीरता से पड़ताल करती है, जो स्थानीय पहचान से जुड़े आन्दोलनों और स्थानीय होने के आधार पर लोगों को विशेष अधिकार का दावा करने के लिए प्रेरित करती हैं।

मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का अनुवाद सुपरिचित कथाकार-अनुवादक प्रभात रंजन ने किया है। यह हिन्दी अनुवाद अपने मूल अंग्रेजी संस्करण से सम्वर्धित है जिसमें महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के सत्ता सम्भालने के पूरे घटनाक्रम और उनके अब तक के शासन की उपलब्धियों और चुनौतियों का ब्योरा भी दिया गया है। प्रस्तुत है किताब से एक अंश—

अध्याय ‘साँप जो अपनी पूँछ खा गया’ से

बाल ठाकरे को ज्ञान प्रकाश ने ‘मूल ऐंग्री यंग मैन’ लिखा है, और उनकी सत्ता करिश्माई रही है, लेकिन उनमें कई कमियाँ भी रहीं। लेकिन जनता उनके व्यक्तित्व से इस हद तक प्रभावित थी कि वह उन कमियों को देख नहीं पायी। जैसा कि कुमार केतकर ने कहा है कि बाल ठाकरे अच्छे योजनाकार नहीं रहे। न ही उन्होंने इतिहास और राजनीतिशास्त्र का ख़ास अध्ययन किया, न ही अर्थशास्त्र की उनकी समझ अच्छी रही। केतकर ने कहा कि शिव सेना-भाजपा शासन काल के दौरान बाल ठाकरे ऐसी परियोजनाओं की शुरुआत कर सकते थे जो मराठी साहित्य, संस्कृति, ऐतिहासिक शोध, सिनेमा और मराठी भाषा को समृद्ध बनाने वाली होतीं, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया।

वरिष्ठ पत्रकार रक्षित सोनावने किसी बड़ी विचारधारा के अभाव को 2012 से 2017 के बीच नासिक में मनसे के उत्थान और पतन से जोड़कर देखते हैं। पार्टी ने अवसरवाद पर आधारिक क्षेत्र में अपना आधार गँवा दिया। जो विचारधारा आरम्भिक सफलता के बाद उसकी तरफ़ खिंची चली आयी थी, लेकिन बाद में अन्य राजनीतिक दलों की तरफ़ चली गई।

सोनावने ने शिवसेना की दो प्रिय योजनाओं का हवाला दिया है। एक, शिव वड़ा (जिसकी योजना यह थी कि एक स्थान पर रसोई हो, एक तरह के मसाले हों, और उनकी आपूर्ति का माध्यम पेशेवर हो), जिसके माध्यम से मराठी युवाओं से यह वादा किया गया था कि उनको वड़ा पाव बेचने के लिए ठेले दिए जाएँगे, वड़ा पाव के बारे में कहा जाता है कि सेना ने ही इसको लोकप्रिय बनाया। दो, एक रुपए में झुनका भाकर (ज्वार की रोटी और बेसन की सब्ज़ी) बेचने की योजना (जिसकी शुरुआत शिव सेना-भाजपा शासन काल में की गई थी)। दोनों योजनाओं का हश्र अच्छा नहीं हुआ। इसी तरह राज ठाकरे ने स्थानीय युवाओं को रोज़गार देने के लिए शिव उद्योग सेना का गठन किया था, लेकिन यह योजना भी परवान नहीं चढ़ पायी।

शिवसेना और मनसे अपने कार्यकर्ताओं को भावनात्मक रूप से सम्मोहित करके अपने साथ जोड़े रखती हैं। इसके कारण असामाजिक तत्व पहचान और संरक्षण के लिए इनसे जुड़ जाते हैं। झुग्गी-झोंपड़ी और चाल में रहने वाला मज़दूर वर्ग शिवसेना का सबसे बड़ा आधार है। उनको रोज़मर्रा की समस्याओं को सुलझाने के लिए मदद की ज़रूरत होती है, बदले में वह चुनाव में मदद करता है।

सोनावने ने कहा है कि ठाकरे बंधुओं में निरंतरता की कमी थी। उन्होंने खेती की संकटों को दूर करने के लिए किसी तरह के ढाँचागत बदलाव की बात नहीं की, जैसे फ़सलों में बदलाव, फ़सल की अच्छी क़ीमत, मध्यस्थों को दूर करने के लिए शहरों में ऐसे केंद्रों का निर्माण जहाँ किसान अपनी फ़सल बेच सकें। डेयरी के व्यवसाय आदि के माध्यम से भी किसानों की कमाई बढ़ाने सम्बन्धी प्रयास नहीं किए गए। ‘राज को पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन बहुत पसंद है। उन्होंने 2012 में नगर निकायों में चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन के लिए अनोखा ढंग निकाला था। उन्होंने परीक्षा का आयोजन किया जिसमें अलग-अलग विषयों के ज्ञान की परीक्षा ली गई। हालाँकि, यह चल नहीं पाया।’

सोनावने ने यह ध्यान दिलाया है दोनों दलों की विस्थापित विरोधी राजनीति में एक बड़ी कमी रही है—वे उन विस्थापितों का विरोध करते हैं जो झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं लेकिन उच्च आय वाले विस्थापितों का नहीं, जिससे यह बात समझ में आती है कि उनका ध्यान महज़ वोट बैंक की राजनीति पर रहता है। जैसा कि जेरार्ड ह्यूज ने लिखा है कि शिवसेना ने गुजराती सेठों के मुम्बई के नागरिक के रूप में रहने को लेकर कभी गम्भीरता से सवाल नहीं उठाए। यह इसी तरह के अन्य स्थानीय आंदोलनों से इसको अलग करता है जैसे झारखंड के आदिवासियों का आंदोलन। इनके निशाने पर केवल ग़रीब विस्थापित होते हैं।

मुम्बई में मज़दूर वर्ग और मध्य वर्ग के एक और गम्भीर संकट को दूर करने की दिशा में दोनों सेनाओं ने कुछ ख़ास नहीं किया है—उचित दर पर आवास जिसके अभाव में बहुत से लोग झुग्गियों में रहते हैं या उपनगरों में या और भी दूर जाकर रहते हैं। स्वर्गीय मृणाल गोरे और पी.बी. सामंत जैसे समाजवादियों ने 1981 में आंदोलन चलाया जिसके कारण 1992 में गोरेगाँव में 6000 से अधिक किरायदारों के ‘नागरी निवारा परिषद’ को जमीन दी गई।

जिस तरह भाजपा के पास आरएसएस है या समाजवादियों के पास राष्ट्र सेवा दल, शिवसेना के पास ऐसा कोई संगठन नहीं है जो उसकी अंतरात्मा की आवाज़ हो या उसका मार्गदर्शन करने वाला हो।

‘अपने विस्तृत सामाजिक आधार के बावजूद शिवसेना ने प्रबोधनकार के बहुजनवाद को नहीं अपनाया’, पत्रकार शोधकर्ता सचिन परब का मानना है। ‘शायद बालासाहेब ने यह देखा था कि अपने सिद्धांतों के कारण प्रबोधनकार को कितना सहना पड़ा था’, परब ने कहा, जिन्होंने प्रबोधनकार के जीवन और कार्यों पर लिखा है। ‘सीकेपी, सारस्वत और सोनार जातियों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जोड़ने से हो सकता है कि ग़ुस्सा कुछ कम हो गया हो’, परब को ऐसा लगता है।

शिवसेना के ऊपर प्रबोधनकार का प्रभाव उसके सामाजिक आधार में और बाहर रही जातियों को जोड़ने में दिखायी देता है, लेकिन मनसे के मामले में यह नहीं है। ‘जाति व्यवस्था को लेकर प्रबोधनकार की जानकारी बहुत गहरी थी, वे आचार्य पी. के. अत्रे, गाडगे महाराज और कर्मवीर भाऊराव पाटिल जैसे दिग्गजों से जुड़े रहे थे। इसलिए बालासाहेब इन सामाजिक वास्तविकताओं से परिचित थे। लेकिन राज उच्च वर्ग तथा उच्च जाति के हिंदुओं से घिरे हुए थे। बहुजन समाज के बहुत से नेताओं ने उनका दामन छोड़ दिया। मुम्बई और उसके आसपास की राजनीति वैसे तो भाषा के आधार पर चलती रही है लेकिन जाति की अंतर्धारा को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता है।

जब प्रबोधनकार की विरासत की तुलना शिवसेना की राजनीति से की जाती है तो विडम्बना गहरी नज़र आती है, जिसमें इसने सामाजिक और सांस्कृतिक कट्टरता का प्रदर्शन किया।

उदाहरण के लिए, जब कांग्रेस-शिवसेना सरकार काला जादू और इंसानों की बलि जैसी प्रथा को प्रतिबन्धित करने सम्बन्धी विधेयक लेकर आयी तो शिवसेना ने उसका विरोध किया। इस विधेयक का एक संशोधित रूप 2013 में अपनाया गया जब इस मुद्दे को लेकर आंदोलन चलाने वाले तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर की 20 अगस्त 2013 की हत्या हो गई।

शिवसेना के कुछ नेताओं ने प्रभावशाली वारकरी सम्प्रदाय के लोगों को बरगलाया कि इस क़ानून के पारित हो जाने के बाद वे पंढरपुर में भगवान विठोबा के मंदिर की यात्रा पर नहीं जा पाएँगे।

शिवसेना ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का भी विरोध किया। जैसे विजय तेंदुलकर के प्रसिद्ध नाटक घासीराम कोतवाल का इसलिए विरोध किया क्योंकि उसमें नाना फडणवीस, जिनको पेशवा काल का निक्कोलो मैकियावेली कहा जाता था, को ऐयाश के रूप में दिखाया गया है। इसी तरह, तेंदुलकर के नाटक सखाराम बाइंडर और समलैंगिकता को केंद्र में रखकर बनायी गई 1996 में प्रदर्शित दीपा मेहता की फिल्म फ़ायर को भी पार्टी के विरोध का सामना करना पड़ा।

जब मराठवाडा यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर के नाम पर रखा गया तो शिवसेना ने इसका विरोध किया, जिसकी वजह से बौद्ध दलितों और हिंदू दलितों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। शिवसेना द्वारा 1978-1994 के नामांतर आंदोलन के विरोध ने उच्च जाति के हिंदुओं को बौद्ध दलितों के ख़िलाफ़ एक कर दिया, जिसके कारण शिवसेना का विस्तार मुम्बई-ठाणे से बाहर मराठवाड़ा इलाक़े में हुआ।

अन्य पिछड़े वर्ग में मज़बूत आधार होने के बावजूद शिवसेना ने वीपी सिंह सरकार द्वारा लागू की गई मंडल आयोग की सिफ़ारिशों का विरोध किया, जिसके कारण अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों को शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण दिया गया।

हालाँकि महाराष्ट्र के एक पूर्व मंत्री ने मनसे प्रमुख की इस कारण तारीफ़ की कि उन्होंने धारा के विरुद्ध जाकर मराठा आरक्षण का विरोध किया, जबकि उद्धव ने उसका समर्थन किया। राज ने कहा कि आरक्षण की माँग को लेकर मराठों ने 2016 और 2017 में जो मोर्चा निकाला, उसके कारण समाज में जाति के आधार पर भेदभाव बढ़ रहा है, और उन्होंने आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग की। 2018 में, महाराष्ट्र सरकार ने शिक्षा तथा नौकरियों में इस प्रभावी समुदाय के लिए 18 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की, जिसको मुम्बई हाई कोर्ट ने शिक्षा के क्षेत्र में 12 प्रतिशत तथा नौकरी में 13 प्रतिशत कर दिया।

‘राज और उद्धव रोज़मर्रा के मुद्दों पर प्रतिक्रिया देकर जनता का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं लेकिन वे दीर्घ अवधि को लेकर नहीं सोच सकते। महाराष्ट्र के लोगों की नौकरियों को ग़ैर महाराष्ट्रीय लोगों द्वारा लिए जाने की आलोचना करना आसान है, लेकिन क्या किसी सेना ने यह कोशिश की कि मराठी लोगों को उस तरह के क्षेत्र में काम करने के लिए तैयार किया जाए जिनमें विस्थापित लोग बहुत अधिक हैं, जैसे निर्माण क्षेत्र और नलसाजी का काम? उन लोगों ने कौशल विकास के लिए कार्यक्रम क्यों नहीं चलाए और अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस बात को पक्का क्यों नहीं किया कि प्रशिक्षित युवाओं को काम मिले?’ शिवसेना के एक पूर्व विधायक ने कहा।

उनका कहना था कि न तो शिवसेना ने, न मनसे ने असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के दुख, किसानों, खेतिहर मज़दूरों तथा आदिवासी और घुमंतू के मुद्दों को उठाया क्योंकि ‘इन लोगों को संगठित करने में सालों की मेहनत लगती है और सस्ती लोकप्रियता के आधार पर उनका समर्थन नहीं हासिल किया जा सकता है।’

वाम झुकाव वाले एक पूर्व विधायक का कहना था कि भावनात्मक मुद्दों और हिंसात्मक प्रदर्शन ने पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया। उनका यह कहना था कि मीडिया के एक हिस्से ने, ख़ासकर मराठी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जानबूझकर राज की छवि गढ़ी। उनके उत्थान की तरह उनके पतन की भूमिका भी मीडिया ने ही तैयार की, जिसको एक नया टीआरपी दिलवाने वाला नेता मिल गया था—नरेंद्र मोदी।

लेकिन छगन भुजबल का कहना है कि स्थानीय समुदायों में शिवसेना की जड़े इतनी गहरी हैं कि वे राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद बनी रहेंगी।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का यह कहना था कि राजनीतिक झटकों के बावजूद राज और मनसे को ख़त्म नहीं माना जा सकता। ‘आख़िरकार उनके पास करिश्माई सत्ता है। ऐसे नेता किसी भी मुद्दे को उठाकर किसी दिन बड़ा राजनीतिक लाभ ले सकते हैं, जैसा कि उन्होंने 2008 में बाहरी लोगों के ख़िलाफ़ आंदोलन में किया था।’

(ये लेखक के निजी विचार हैं)
अविनाश कल्ला की किताब 'अमेरिका 2020' से एक अंश

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