Story: ‘The Country of the Blind’ – H. G. Wells
अनुवाद – उपमा ‘ऋचा’

(लेखक परिचय- साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए चार बार नामांकित उपन्यासकार, कथाकार, आत्मकथा लेखक हर्बट जॉर्ज वेल्स (21 सितंबर 1866-13 अगस्त 1946) अपनी विज्ञान-कथाओं (सांइस फ़िक्शन) के लिए जाने जाते हैं। ‘द टाइम मशीन’, ‘दी आईलैंड ऑफ डॉक्टर मोरियो’, ‘द इनविज़ीबिल मैन’ एवं ‘द वॉर ऑफ द वर्ल्डज़’ उनके द्वारा इसी शैली में लिखी कुछ प्रमुख रचनाएं हैं। ‘द कंट्री ऑफ द ब्लाइंड’ वेल्स की एक महत्वपूर्ण कहानी है। वर्तमान सामाजिक संदर्भों के लिहाज़ से बार-बार पढ़ी जाने योग्य। कथ्य और शिल्प के लिहाज़ से अत्यंत सशक्त यह कहानी न केवल ‘दृष्टि’ के जरिए समाज की छद्म मानसिकता पर गहरी चोट करती है, बल्कि उसकी ‘मानसिक अंधता’ को दूर करने की कोशिश भी करती है।)

चिंबोराज़ो से तक़रीबन तीन सौ मील या उससे भी ज़्यादा और कोटोपाक्सी की बर्फ़ से सौ मील दूर, इक्वाडोर के एंडीज़ में कुदरती कचरे के बीच, वहीं तमाम इंसानी संसार से अलग-थलग एक रहस्यमई पहाड़ी घाटी पर अंधों की नगरी थी। बहुत साल पहले ये घाटी संसार के सामने इस तरह खुली हुई थी कि लोग कभी भी गहरे संकरे रास्ते और बर्फ़ीले दर्रे से गुज़रकर घाटी के यकसाँ घास के मैदान में दाख़िल हो सकते थे। बल्कि कुछ लोग वहाँ पहुँचे भी… वह शायद पेरू की किसी अर्ध-नस्लीय प्रजाति का एक परिवार (यह गिनती एक से ज़्यादा भी हो सकती है) था, जो किसी स्पेनिश राजा के लालच और अत्याचार से बचकर यहाँ भाग आया था। लेकिन फिर मायनोबोम्बा का भयानक तूफान आया, जिसके चलते क्विटो में सत्रह दिनों के लिए रात घिर आई। येगुआची में पानी उबलने लगा और ग्वायाकिल तक में मछलियाँ तड़पकर मरने की स्थिति में पहुँच गईं। पैसिफिक की गहरी ढलानों के सहारे की मिट्टी बह गई और नज़रों के सामने अचानक बाढ़ का नज़ारा नमूदार हो उठा। इसी तूफ़ान में पुराने अरौका शिखर का एक हिस्सा इस खौफ़नाक ढंग से दरका कि कान उसकी भयानक गर्जना से दहल गए और देखते ही देखते ‘अंधों का देश’ इंसानों के खोजी क़दमों से हमेशा के लिए अलग हो गया। जिस समय दुनिया बुरी तरह से हिल रही थी, भाग्य से घाटी में आ बसे परिवार के सदस्यों में से एक को संकरे रास्ते के सहारे अपनी जान बचाने का मौक़ा मिल गया। लेकिन उस अफरा-तफरी में वह अपनी पत्नी और बच्चों को वहीं भूल गया। यही नहीं उसके तमाम अज़ीज़ दोस्त और माल-असबाव वहीं छूट गए। लिहाज़ा उसने निचले इलाक़े में एक नए सिरे से जीवन शुरू किया, मगर कुछ ही दिनों में बीमारी और अंधापन ने उसे अपने पंजों में जकड़ लिया और वह अपनी ही खोदी सुरंगों में सजायाफ़्ता होकर मर गया। लेकिन उसके द्वारा सुनाई कहानी से एक दंतकथा ने जन्म लिया, जो एंडीज़ की पहाड़ियों के साथ दूर तक फैलती चली गई।

उसने बताया कि तब वह निरा-बच्चा ही था, जब वह पहली बार एक लामा (दक्षिणी अमरीकी ऊंट) को कपड़े की बड़ी-सी गठरी में बांधकर उस घाटी में लाया था। घाटी में वो सब था, जिसकी इच्छा कोई इंसान अपने दिल में कर सकता है। जैसे- मीठा पानी, चरागाह, खुशनुमा आब-ओ-हवा, अनोखे फलों से लदी उलझी हुई झाड़ियों के साथ उपजाऊ भूरी मिट्टी के ढलवां मैदान और पाइन के झूलते हुए जंगल, जो गहरी बर्फ़बारी को आकर्षित करते रहते थे। (जिस वजह से) सुदूर ऊपर सिलेटी-हरे पत्थरों की विशाल चट्टान तीन तरफ से बर्फ़ की मोटी परत से ढकी रहती थी। ग्लेशियर की धारा वहाँ तक नहीं पहुँच पाती थी, लेकिन आगे ढलानों पर से उसका बहाव देखते बनता था। बीच में कभी-कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े टुकड़े भी घाटी की ओर गिर जाते थे। इस घाटी में बारिश नहीं होती थी, लेकिन पानी की प्रचुरता और कोने से कोने तक फैली नहरों ने घाटी को गाढ़ी हरीतिमा दे रखी थी। वास्तव में वहाँ रहने वालों ने अपनी भूमिका को बड़ी अच्छी तरह से अंजाम दिया। उनके जानवर भी उनके जैसे ही आज्ञाकारी निकले और लगातार परिवार बढ़ाते रहे, मगर एक चीज ने उनकी खुशियों को डस लिया और वही एक चीज उन्हें ख़त्म करने के लिए काफ़ी थी। वो दरअसल एक अजीब-सी बीमारी थी, जिसने वहाँ पैदा होने वाले बच्चों (बल्कि कई दूसरे बड़ी उम्र के बच्चों को भी) अंधा कर दिया। अंधेपन की इसी माहमारी से निजात पाने के लिए वह तमाम जोखिम, कठिनाई और थकान के बावजूद संकरे रास्ते की ओर मुड़ गया। उन दिनों ऐसे मामलों में लोग रोगाणुओं और संक्रमणों के बारे में नहीं, पापों के बारे मे सोचते थे। उन्हें लगता था कि इस दुख की वजह वे ख़ुद हैं। उन्हें घाटी में प्रवेश करने के साथ ही यहाँ मंदिर स्थापित कर लेना चाहिए था, लेकिन उनकी पुजारी-विहीन बस्ती ये लापरवाही कर बैठी और… इसीलिए उसने घाटी में एक सस्ता, सुन्दर, मन वांछित फल देने वाला मंदिर बनवाने की सोची, जहाँ पुरातन अवशेष हों और वैसे ही तेजी से असर डालने वाले विश्वास, पवित्र अभिमंत्रित चीजें, रहस्यमई मुद्राएं और प्रार्थनाएं भी हों। और इसीलिए वह अपने बटुए में चांदी का देशी छल्ला लेकर निकल पड़ा, ताकि अपनी बस्ती में पैर जमाती उस अंधेपन की बीमारी को ख़त्म करने के लिए दैवीय सहायता जमा करके ला सके। मैं उस धूप से झुलसे, कृशकाय, चिंतातुर और धुंधली आँखों वाले युवा पर्वतारोही को आँखों में उतार रहा था, जो संसार के लिहाज़ से पर्याप्त अनुपयुक्त तीक्ष्ण दृष्टि और चौकस निगाह वाले पुजारी को यह कहानी सुना रहा था। मैं उस क्षण की कल्पना कर सकता था, जब वह उस खौफ़नाक महामारी से लड़ने के लिए पवित्र और अचूक उपायों के साथ वापसी की राह तलाश रहा था और उस असीम निराशा का भी, जिसका सामना उसे उस सँकरे रास्ते पर करना पड़ा होगा। वह भी पूरी भयावाहता के साथ… लेकिन दुर्घटनाओं से भरी उसकी शेष कहानी (जाने कैसे) मुझसे खो गई। मेरे हाथों में बस कुछ निशान थे, जो बताते थे कि हाँ मैं उस शख़्स की दर्दनाक मौत के बारे में जानता था। जिस धारा ने कभी उस सँकरे रास्ते को बनाया था, उस पर बहती दुर्भाग्यपूर्ण कहानी ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ते हुए दंतकथा का रूप ले लिया। उस बहाव, उस भटकन में बाक़ी घटनाएं भले कहीं दूर छिटक गईं, लेकिन अलग-थलग पड़कर विस्मृत हो चुकी घाटी की छोटी-सी आबादी की नसों में वह बीमारी तेजी से दौड़ती रही। बूढ़े लोग चुंधियाई आँखों और कमजोर नज़र वाले होते गए। युवकों को दिखता था, लेकिन बहुत कम। जबकि बच्चे तो पैदा ही ऐसे हो रहे थे कि कभी कुछ देख ही न पाएंगे। हालाँकि पूरी दुनिया की दृष्टि से ओझल उस बर्फ़ से घिरी घाटी में जीवन अब भी बहुत आसान था। न कंटीली झाड़ियाँ और न जंगली गुलाब, न तो शैतान कीड़े-मकोड़े और न कोई दूसरे जानवर, इसीलिए लामा की सीधी-सरल प्रजाति बच गई, जिसे वे सँकरे रास्ते के सहारे सिकुड़ी नदी की गहराई में घिसटकर, ठेलकर लाए थे। फिर भी धीरे-धीरे उनकी दृष्टि कम से कमतर होती गई। फिर वह पल भी आया जब वे अपने परिवेश तो क्या, अपने नुकसान और हानियों को भी बमुश्किल ही देख पाते थे। यूँ उन्होंने अपने दृष्टिहीन युवाओं का तब-तक मार्गदर्शन किया, जब-तक कि वे उस शानदार घाटी को पूरी तरह से जान नहीं गए। लेकिन आखिरकार वो अन्तिम दृष्टि भी न रही जिसके सहारे पूरी नस्ल जी रही थी। स्पेनी सभ्यता के साथ नाममात्र का संबंध रखने वाले वे अशिक्षित और सरल लोग, जिनमें पेरू की पुरानी कलाओं और विस्मृत दर्शन की गंध शेष थी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुज़रते चले गए। हाँ गुज़रने के इस क्रम में वे बहुत कुछ भूल गए, लेकिन उन्होंने बहुत कुछ ईज़ाद भी किया। और फिर एक बच्चा पैदा हुआ। यह बच्चा, उस शख़्स की पंद्रहवीं पीढ़ी का सदस्य था जो दैवीय सहायता की तलाश में चांदी का छल्ला लेकर घाटी से निकला तो था, लेकिन कभी वापस लौटकर नहीं आया। तकरीबन तभी बाहरी दुनिया से एक आदमी वहाँ आया और उनके दिमाग में बुरी तरह से उथल-पुथल मचा दी। वह आदमी, जो महीनों तक उनके साथ रहा लेकिन उनकी अन्तिम त्रासदी से पहले वहाँ से चला गया, यह उसी आदमी की कहानी है…

वह क्विटो के पास किसी गाँव का पर्वतारोही था। उसने दुनिया देख रखी थी। तमाम किताबें पढ़ रखी थीं और वह गहरे समुद्र में भी जा चुका था। कुल मिलाकर वह एक तेज़ दिमाग और व्यावहारिक शख़्स था, जिसको सर चार्ल्स पॉइंटर की अगुआई में इक्वाडोर की पहाड़ों पर चढ़ाई करने के लिए आए अंग्रेजों के दल ने अपने साथ इसलिए ले लिया था, क्योंकि उनके तीन स्विस गाइडों में से एक बीमार पड़ गया था। उनके साथ वह पर्वतारोही तमाम दिन यहाँ कूदता, वहाँ फलांगता रहा और फिर सामने आई पेरेस्पोप्लेट की बूढ़ी चोटी… इसे ही नापने के प्रयास के दौरान वह इस दुनिया से छूटकर उस दुनिया में चला गया, जो मौत से कम भयावह नहीं थी। पहाड़ों के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले व्यक्ति से आशा नहीं की जाती कि वह इस इलाक़े की चट्टानों की चालाकियों से नावाकिफ़ होगा, फिर भी नूनेज़ अचानक कहीं गायब हो गया।

यह दुर्घटना तब घटित हुई, जब पॉइंटर का दल एक कठिन और लगभग ऊर्ध्वाधर रास्ता तय करने के बाद रात भर के लिए पहाड़ी पर ठहरा हुआ था। अचानक उन्होंने पाया कि नूनेज़ उनके बीच नहीं… वो कहीं गायब हो गया था। वे चिल्लाए, मगर वहाँ कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला। लिहाज़ा वे और चिल्लाए। खूब सीटियाँ बजाई। इधर-उधर भाग-दौड़ भी की, लेकिन बदकिस्मती से उस रात आसमान में चांद नहीं था और टॉर्च भी थोड़ी ही दूर तक रोशनी फेंक पाती थी, इसलिए उनकी खोजबीन का दायरा बड़ा नहीं हो पाया और शेष रात उन्होंने जागकर बिताई।

जैसे ही सुबह अंखुयाई, उन्हें गिरने के निशान दिखाई दिए। हालाँकि यह असंभव-सा लग रहा था। फिर भी साफ था कि नूनेज़ चट्टानी दरकन नहीं, बल्कि बर्फ़ के खिसकने की वज़ह से नीचे गिर गया। बेशक उसने शोर मचाया होगा, लेकिन गहराइयाँ केवल इंसान को नहीं आवाज़ों को भी निगल जाती हैं। चोटी से नीचे देखने पर मालूम होता था कि वह पहाड़ की पूर्वी दिशा की ओर फिसला। वहाँ से सीधे बर्फ़ की तीखी ढलान के मुहाने पर जा गिरा और फिर बर्फ़ की चट्टान के बीच से रास्ता बनाते हुए नीचे लुढ़कता चला गया। रास्ता सीधा उस भयानक ढलान के किनारे जाकर ठहरता था, जहाँ तमाम दृश्य-अदृश्य हो जाते थे। दूरी के कारण नीचे की हर चीज़ धुंधला गई थी, सिवाय संकरी और बंद घाटी से बाहर आने को आतुर पेड़ों की शाखों के…

नूनेज़ के साथी यह बात नहीं जानते थे कि यह अंधों की नगरी है, (और शायद) इसीलिए स्थिति की भयावहता को उस तरह महसूस भी नहीं कर पा रहे थे। पॉइंटर, जो (तलाश अभियान में तब्दील हो चुके) इस पर्वतारोहण-अभियान का वित्तीय आधार थे, कोई अगला कदम उठाते, इससे पहले ही वक़्त ने उनके सामने ज़रूरी काम से वापस लौटने का फरमान रख दिया। नतीजा पहाड़ी पर बसा पॉइंटर का डेरा उखड़ गया और पेरेस्पोप्लेट की चोटी अविजित बनी रही।

नीचे गिरने के बावजूद नूनेज़ बच गया लेकिन…

ढलान का अन्त आते-आते वह हज़ारों फीट नीचे गिरता चला गया और बर्फ़ीली ढलान पर फिसलते हुए बर्फ़ के उन बादलों के बीच जा पहुँचा, जहाँ फिसलन ऊपर की तुलना में ज़्यादा गहरी थी। नीचे फिसलते हुए वह बेसुध और भौचक हो चला था। उसका सिर बुरी तरह चकरा रहा था। हालाँकि उसके शरीर की तमाम हड्डियाँ अब भी साबुत थीं, लेकिन लुढ़कने और लुढ़कते जाने का यह क्रम यहीं नहीं रुका। किसी अनियंत्रित गेंद-सा वह गोल-गोल होकर लुढ़कता ही रहा, लेकिन यह स्थिति अनंत-काल तक जारी रहने का आभास कराए, उससे पहले ही नूनेज़ को आखिरी झटका लगा और उसने ख़ुद को नरम सफेद ढेरी के बीच दफन पाया, जो उस जगह उसकी साथी भी थी और रक्षक भी…

होश आने पर उसे पहले-पहल अहसास हुआ कि जैसे वह बहुत बीमार हो और लंबे समय से बिस्तर पर पड़ा रहा हो, लेकिन हालत को एक पर्वतारोही की बुद्धि से परखने के बाद उसने ख़ुद को ढीला छोड़ दिया और तब-तक उसी स्थिति में लेटा रहा, जब-तक कि उसे सितारे न दिखाई पड़ने लगे। चित्त लेटे हुए, वह सोचता रहा कि वह कहाँ आ गया है और उसके साथ क्या हुआ? उसने अपने अंग-प्रत्याँगों को टटोला और पता लगाया कि उसके लिबास के कई बटन निकल चुके थे। कोट उलटकर उसके सिर पर लिपटा हुआ था। चाकू जेब से नदारद था और ठुड्डी से बंधी होने के बावजूद भी टोपी कहीं खो गई थी। उसे याद आया कि उसे अपने तंबू की दीवार को सहारा देने के लिए कुछ पत्थरों की तलाश थी, लेकिन तभी उसकी बर्फ़ खोदने वाली कुल्हाड़ी कहीं गायब हो गई और… देखने के लिए देखने के अंदाज़ में उसने अपने आसपास दृष्टि घुमाई। आख़िर उसे विश्वास हो गया कि चंद्रमा के दारुण प्रकाश ने उसे धोखे से एक अतिदारुण उड़ान का स्वर बना दिया और नतीजा वह ऊपर से नीचे आ गिरा।

थोड़ी देर तक वह यूँ ही लेटा रहा, चारों ओर फैली विशाल, पीला चट्टानों के ऊपर से पल-प्रतिपल गहरे होते अंधेरे को देखते हुए… यहाँ की मायावी, रहस्यमई सुन्दरता उसे मंत्रभूत कर रही थी। अचानक ही उसे हँसी का दौरा पड़ा और वह देर तक हँसता रहा। काफ़ी देर बाद उसे समझ आया कि वह बर्फ़ के निचले किनारे के पास था। नीचे, जहाँ अब चांदनी थी और हल्की-सी ढलान, उसने गहरी और टूटी चट्टानों के टुकड़े देखे। पैरों पर खड़ा होने के लिए उसे ख़ुद से बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी। उसका हर एक अंग दर्द कर रहा था और मन करवट बदलने तक को राज़ी नहीं था। फिर भी वह हिम्मत करके उठा। उसकी चाल में शराबियों जैसी लड़खड़ाहट थी, लेकिन वह मैदान के दूसरे किनारे तक गया। अपनी जेब से फ्लास्क निकालकर पानी पिया और फौरन ही गहरी नींद में सो गया… फिर यह नींद सुदूर गाते पंछियों की आवाज़ से ही खुली।

वह बैठ गया और ख़ुद को यह स्वीकार करने के लिए तैयार करने लगा कि वह एक बहुत गहरी ढलान की आख़िरी कगार पर खड़ी नन्ही सी पहाड़ी पर था। उसके पीछे चट्टान की एक और दीवार थी, जो शायद आकाश के सामने ख़ुद-ब-ख़ुद खड़ी हो गई थी। ढलान और हरे मैदान के बीच पूरब से पश्चिम की ओर जाने वाला संकरा रास्ता सुबह की रोशनी से भरा हुआ था। उसे लग रहा था जैसे नीचे भी ठीक ऐसा ही ढलवाँ घास का मैदान है, लेकिन बर्फ़ के पीछे उसने एक शिगाफ़ पाया, जहाँ से बर्फ़ का पानी टपक रहा था। बेशक यह पानी, एक हताश आदमी को हौसलों से भर सकता था। उसे अब यह तुलनात्मक दृष्टि में ज़्यादा सरल लग रहा था। थोड़े आत्म-मंथन के बाद उसने क़दम बढ़ाया और किसी विशेष कठिनाई के बिना सामने की चट्टान पर चढ़कर पेड़ों के पास तक जा पहुँचा।

उसने ख़ुद को संभाला और अपना चेहरा सँकरे रास्ते की ओर घुमा लिया। क्योंकि इस रास्ते को वह न केवल हरे घास के मैदान की ओर खुलता देख पा रहा था, बल्कि अब उसे वहाँ कतार बंधे खड़े अपरिचित घरों की झलक भी स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। कभी उसके क़दम चट्टानी दीवार की ओर बढ़ते, तो कभी सँकरे रास्ते पर बिछे उगते सूरज की ओर। पंछियों के गाने की आवाज़ें अब-तक दूर जा चुकी थीं। हवा भी सर्द हो गई थी और आसपास अंधेरा घिरने लगा था, लेकिन दूर घाटी में कतार बंधे खड़े घर अब भी रोशन थे। इस समय वह मुहाने तक आ चुका था। उसने वहीं खड़े होकर चट्टानों के बीच से निरीक्षण करना शुरू किया, क्योंकि वह एक चौकस आदमी था। सामने कोई अपरिचित दरख़्त अपने हरे हाथों से दरारों को मुट्ठियों में कसने को आतुर होता दिखाई दे रहा था। उसने फर्न के एक-दो पत्ते उठा लिए। डंठल हटा देने के बाद यह काफ़ी उपयोगी नज़र आ रहे थे।

आख़िर दोपहर तक वह सँकरे रास्ते के हलक से बाहर निकलकर खुले मैदान और सूर्य के प्रकाश में आ गया। लेकिन वह बुरी तरह से थक गया था। उसके लिए एक पल भी खड़ा होना दूभर हो रहा था। वह एक चट्टान की छाया में बैठ गया। झरने के पानी से अपना फ्लास्क भरा और घूंट-घूंटकर उसे कण्ठ में उतारने लगा। आसपास के घरों में ख़बर फैलने तक वह थोड़ा आराम कर लेना चाहता था।

जहाँ तक उसने महसूस किया था, इस घाटी की हर चीज अबूझ और अपरिचित-सी थी, लेकिन सबसे ज़्यादा अजीब थीं यहाँ के लोगों की आँखें… यूँ घाटी का अधिकतर हिस्सा हरियाली से भरपूर था। खूबसूरत फूल जगह-जगह सितारों की तरह टंके हुए थे, जो अच्छी देखभाल और कटाई-छंटाई का सबूत देते थे। घाटी में पानी का झरना घंटियों की तरह बजता था। सिंचाई की धाराएं घाटी के बीचों-बीच से गुज़रते हुए अन्ततः नीचे एक मुख्य धारा से जाकर मिलती थीं। निश्चित तौर पर यह व्यवस्था इस निर्जन स्थान को एक विशिष्ट शहरी गुणवत्ता दे रही थी, लेकिन इसका मूल्य इस तथ्य ने थोड़ा और बढ़ा दिया था कि यहाँ के तमाम रास्ते काले और सफेद पत्थरों से ढंके हुए थे। गति-अवरोधक वाली सड़कों के किनारों पर पैदल-यात्रियों के लिए व्यवस्था थी। केंद्रीय गाँव के घर, उसके परिचित पहाड़ी गाँव के घरों की अस्त-व्यस्तता से परे थे। वे साफ-सुथरी सड़क के दोनों ओर सीधी पंक्ति में खड़े हुए थे। उनके रंगीन मुखौटे दरवाजे में यहाँ-वहाँ सुराख़ कर रहे थे, लेकिन उनके अहातों की एकरसता को तोड़ने का साहस करने वाली कोई खिड़की वहाँ नहीं थी। उन घरों को न जाने कैसे रंगा गया था कि उनकी दीवारें कभी भूरी लगतीं, कभी धूसर, कभी सिलेटी और कभी गहरी कत्थई… इस अजब रंग-संयोजन को देखकर, नूनेज़ के मन में जो सबसे पहला शब्द आया, वो था- ‘अंधा…’ और अनजाने ही वह सोचने लगा कि “जिस आदमी ने भी यह किया, वह ज़रूर चमगादड़ जैसा अंधा रहा होगा।”

वह नीचे उतरा और उस चट्टानी दीवार और जलधारा के पास तक पहुँच गया, जो घाटी की ओर जाती थी। यहाँ से वह घास के ढेर पर आराम करते बहुत से स्त्री-पुरुषों को देख पा रहा था। वे लोग ऐसे लेटे हुए थे, मानो सुबह-सुबह की भागमभाग से थककर दो घड़ी सुस्ताने बैठे हों। पास ही में बहुत से बच्चे भी उठ-बैठ रहे थे। बस हाथ भर की दूरी पर तीन आदमी याक पर बाल्टियाँ लादे घरों की ओर जा रहे थे। ये लोग लामा के चमड़े के कपड़े, जूते और बेल्ट पहने हुए थे। अलावा इसके उन्होंने कपड़े की काली टोपियाँ और ईयर-फ़्लैप भी पहन रखे थे। वे एक-दूसरे के पीछे कतार बांधे धीरे-धीरे चल रहे थे। उनकी चाल में रात भर जागे व्यक्ति जैसे उबासियाँ भरी थी। फिर भी उनके व्यक्तित्व में कुछ तो ऐसा था कि चट्टान के पीछे छिपा खड़ा नूनेज़ न केवल एक पल की झिझक के बाद उनके सामने जा खड़ा हुआ, बल्कि भरपूर आवाज़ में चिल्लाया भी, जो पलक झपकते ही पूरी घाटी में गूंज गई।

तीनों आदमी रुके और अपने सिर हिलाने लगे, मानो वे उसकी ओर देख रहे हों। जब वे अपने चेहरे को इधर-उधर घुमा रहे थे, नूनेज़ ने हाथ हिलाया, लेकिन ऐसा लगा जैसे उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं दिया। थोड़ी देर बाद वे पहाड़ों की ओर मुंह करके चिल्लाए, मानो जवाब दे रहे हों। नूनेज़ झुका और फिर से उसके मन में वही शब्द कौधा- ‘अंधा…’ “लगता है ये बेवकूफ़ भी अंधे हैं।”

बहुत चीखने-चिल्लाने के बाद आखिरकार नूनेज़ ने एक छोटे पुल के सहारे जलधारा को पार कर लिया और दीवार में बने दरवाजे के जरिए अंदर दाख़िल हो गया। जब तक वह उनके पास तक पहुँचा, वह आश्वस्त हो चुका था कि वे तमाम लोग अंधे थे। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे यक़ीन आ चुका था कि ये वही अंधों का देश था, जिसकी कहानियाँ घाटी के बाहर आश्चर्य से कही-सुनी जाती हैं। विश्वास का नशा उस पर हावी हो रहा था और उसे किसी साहसिक रोमांच की भावना से भर रहा था। तीनों लोग उसकी ओर देखे बिना एक ओर खड़े थे, हाँ मगर उनके कान उसी की ओर लगे हुए थे। मन ही मन डरे हुए लोगों की तरह वे एक-दूसरे से सटकर खड़े हुए थे और नूनेज़ को उसके अजनबी क़दमों की हरकत से पहचानने की कोशिश कर रहे थे। नूनेज़ देख सकता था कि उनकी बंद पलकें ऐसे सिकुड़ गई थीं, जैसे हुंकार के सामने हौसला सिकुड़ जाता है। उनके चेहरों पर भय का भाव चस्पा था।

“आदमी…” उनमें से एक कठिनाई से समझ आने वाली स्पेनिश जुबान में बोला, “ये कोई आदमी है या कोई पहाड़ से उतरी कोई आत्मा….!”

लेकिन नूनेज़ ने अभी-अभी ज़िंदगी में दाख़िल हुए नौजवान की तरह एक क़दम आगे बढ़ाया। इस वक़्त उसके मन में अंधों की नगरी और घाटी से जुड़ी तमाम पुरानी कहानियाँ घुमड़ रही थीं और उसे रह-रहकर पुरानी कहावत याद आ रही थी, “अंधों के बीच काना राजा…”

उसके ख़याल न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ रहे थे, लेकिन उसकी चाल में गजब का आत्म-विश्वास आ चुका था। वह शांति से आगे बढ़ा और बड़े अदब के साथ उन तीनों का अभिवादन किया और उनसे बात शुरू की, लेकिन वह अपनी आँखों का लगातार इस्तेमाल करता रहा।

“भैया पेड्रो, ये कहाँ से आया है?” एक ने दूसरे से सवाल किया।

“चट्टानों से उतरकर…”

“मैं पहाड़ों से आया हूँ,” नूनेज़ ने समझाया, “वहाँ… इस नगरी के पार से, जहाँ लोग देख सकते हैं। अर…रे! बोगोटा के पास ही तो है वह जगह… वहाँ हज़ारों लोग रहते हैं और हज़ारों तरह के नज़ारे हैं।”

“नज़ारे…?” पेड्रो फुसफुसाया, “नज्जारे??”

“वो चट्टानों के पार से आया है,” किसी दूसरे अंधे ने कहा।

नूनेज़ ने देखा, न केवल उन तीनों के कोट का कपड़ा अलग-अलग तरह का था। बल्कि सिलाई का तरीक़ा भी अलग-अलग था।

चेहरे पर एक ही भाव जैसे लिए वे सब उसे एक ही तरह से घूर रहे थे और उन सबके हाथ भी एक ही तरह से पसरे हुए थे। इन पसरी हुई हथेलियों से दूर चले जाने के इरादे से नूनेज़ ने क़दम पीछे खींचे।

“इधर आओ,” उसकी हरकत को बूझते हुए तीसरे अंधे ने कहा और बड़ी सफाई से उसे पकड़ लिया।

उन्होंने नूनेज़ को लगभग दबोच लिया और उसके देर तक टटोलते रहे। जब-तक उनकी कार्यवाही चलती रही, उन्होंने एक भी शब्द नहीं बोला।

“आराम से…” अपनी आँख में उंगली घुसती देख वह चीखा, लेकिन उसे समझ आ रहा था कि पुतलियों का हिलना उनके लिए सामान्य बात नहीं है। उन्हें इस अंग का फड़कना अजीब लग रहा है और वे इसकी वज़ह समझ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि अगले ही पल एक दूसरी उंगली उसकी आँखों की ओर बढ़ रही थी।

“कोर्रेया… ये तो बड़ा अजीब-सा जीव है,” पेड्रो नाम से पुकारे जा रहे शख़्स ने कहा, “उसके बालों का रूखापन महसूस करो, मानो लामा के बाल!”

“ये ख़ुद भी तो उन्हीं चट्टानों के जैसा खुरदुरा है, जिन्होंने इसे पैदा किया है,” अपने मुलायम और चिकने हाथों से नूनेज़ के दाढ़ीयुक्त चेहरे पर हाथ फेरते हुए कोर्रेया ने कहा, “शायद ये पंख उगा रहा है।”

उनके परीक्षण के दौरान नूनेज़ ने कसमसाकर उनकी पकड़ से बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने पकड़ ढीली नहीं होने दी।

“आराम से…!” उसने फिर से कहा। इस बार थोड़ा गुस्से और खीज के साथ…

“देखो ये बोलता है मतलब है तो इंसान ही,” तीसरा दूर की कौड़ी लाया।

“हुंह…!” उसके कोट के खुरदुरेपन को महसूस करते हुए पेड्रो ने हिक़ारत दिखाई।

“और तुम दुनिया में आ गए?” पेड्रो ने पूछा।

“दुनिया में नहीं, दुनिया के पार… पहाड़ों और दर्रों के पार। यहाँ से ठीक ऊपर, सूरज तक आधा रास्ता है। उस विशाल संसार को पार करके, जो बारह दिन की समुद्री यात्रा के बाद नीचे उतरता है।”

लेकिन वे शायद ही उसकी बात सुन रहे थे।

“हमारे पुरखे हमसे कहते थे इंसान शायद कुदरत की शक्ति से बना है,” कोर्रेया ने कहा, “यह चीज़ों और नमी की गर्मी है और सड़न भी… हाँ सड़न।”

“हमें इसको अपने बड़े-बूढ़ों के पास ले जाना चाहिए,” पेड्रो ने सलाह दी।

“पहले शोर मचाकर बाक़ी लोगों को आगाह कर दो,” कोर्रेया ने सलाह दी, “कहीं बच्चे डर न जाएं। आज का बड़ा अजीब मौक़ा है।”

और वे सब चीखने लगे। पेड्रो सबसे पहले आगे बढ़ा। नूनेज़ को बस्ती के बीच ले जाने के लिए उसने उसकी बांह पकड़ ली, तो नूनेज़ ने हाथ झिटकते हुए कहा ,”मैं देख सकता हूँ।”

“देख सकता हूँ?” कोर्रेया ने कहा।

“हाँ… हाँ मैं देख सकता हूँ,” नूनेज़ ने उसकी और मुड़ते हुए जानबूझकर पेड्रो की बाल्टी को ठोकर मारी।

“उसकी इंद्रियाँ सही काम नहीं कर रही हैं,” तीसरा अंधा बोला, “ये ठोकर मारता है और अर्थहीन शब्द बोलता है। नईं…नईं…नईं… इसे तो हाथ पकड़कर ही ले चलो भैया।”

“आप जैसा करें,” नूनेज़ ने कहा और हँसकर अलग चलते हुए सोचने लगा, “लगता है ये लोग दृष्टि के बारे में कुछ भी नहीं जानते। चलो कोई नहीं… वक़्त आने पर मैं उन्हें सिखा दूँगा।”

तभी उसे लोगों की चीख सुनाई दी और उसने गाँव के बीच रास्ते में अनगिनत चेहरों को जमा देखा। उसने इस स्थिति को अपनी नस-नाड़ियों और धैर्य की सीमाओं में उससे कहीं ज़्यादा तेजी से और कहीं ज़्यादा तनाव के साथ घुसते हुए महसूस किया, जितना कि उसने अंधों की नगरी के लोगों से पहली मुठभेड़ के वक़्त अनुमान लगाया था। जैसे-जैसे वह उस जगह के नज़दीक पहुँच रहा था, उसे वो जगह ज़्यादा विस्तृत, ज़्यादा बड़ी और ज़्यादा अजीब नज़र आ रही थी। बदनुमा दाग जैसा प्लास्टर विचित्र था। बच्चों और स्त्री (नूनेज़ यह देखकर खुश था कि यहाँ कुछ ऐसे खुशरंग चेहरे भी थे, जिनमें थिर आँखों के बावजूद पर्याप्त मधुरता और आकर्षण था), पुरुषों की भीड़ उसके पास आ रही थी। उसे अपने मुलायम, संवेदनशील स्पर्श से छू रही थी। सूंघ रही थी और उसके द्वारा कहे जा रहे हर एक शब्द को गौर से सुन रही थी। हालाँकि उसकी आवाज़, उनके मीठे लहज़े के सामने ख़ासी कर्कश और बेसुरी सुनाई पड़ रही थी। कुछ कुंवारी कन्याएँ और बच्चे, डर के मारे दूर ही खड़े थे। ख़ैर… भीड़ ने नूनेज़ को घेर लिया। उसके तीनों अगुआ अधिकार भाव के साथ उसके पास ही खड़े थे और बार-बार कह रहे थे, “चट्टानों के पार का जंगली इंसान…”

नूनेज़ भी बराबर उनकी गलती सुधार रहा था, “अंआ… चट्टानों के पार नहीं। बोगोटा… हाँ बोगोटा, पहाड़ की चोटी के ऊपर!”

“जंगली इंसान… अजीब-अजीब शब्दों का प्रयोग करने वाला जंगली,” पेड्रो बोला, “क्या तुमने कभी सुना है- बोगोटा? मालूम होता है इसका दिमाग अभी सही से विकसित नहीं हुआ। वो अभी भाषा के शुरुआती स्तर पर ही है।”

एक छोटा बच्चा उसका हाथ हिलाकर उसकी नक़ल उतारने लगा, “बोगोटा! ये…इये…बोगोट्टा!”

“हेइ… ये हमारे गाँव के पास का एक शहर है। मैं बहुत बड़ी दुनिया से आया हूँ। वहाँ लोगों के पास आँख हैं और वो देख सकते हैं।”

“लगता है इसका नाम बोगोटा है।” उन्होंने कहा।

“वो ठोकर मारता है,” कोर्रेया ने शिकायत की, “हम वहाँ से यहाँ आए, इस बीच इसने दो बार ठोकर मारी।”

“इसे बड़े-बुजुर्गों के पास ले चलो।” कहीं से सलाह गूंजी और वे उसे एक दरवाजे में ठेलते हुए एक कमरे में ले गए, जो कीचड़ जितना काला था।

अगले ही क्षण उसने ख़ुद को सामने बैठे व्यक्ति के पैरों में गिरा पाया। उसने अपनी बाहें फैलानी चाहीं, लेकिन इस उपक्रम में उसके हाथ किसी और के मुंह से जा लगे। उसे तत्काल अपने आसपास गुस्सैल आवाज़ों और तेवरों की उपस्थिति महसूस हुई। अगले ही पल वह ख़ुद को अनगिनत हाथों की गिरफ्त से छुड़ाने की लड़ाई लड़ रहा था। लेकिन यह पूरी तरह से एक-तरफा लड़ाई थी, क्योंकि जल्द ही उसने ख़ुद को एक अजीब-सी स्थिति में घिरा पाया और वह शांत बैठ गया।

“मैं गिर गया,” उसने झल्लाकर कहा, “उंह… इस अंधेरे में मैं कुछ नहीं देख सकता।”

कमरे में ख़ामोशी तारी हो गई, मानो वहाँ मौजूद लोग इस अनदेखे, अनजाने इंसान के शब्दों को समझने की कोशिश कर रहे हों।

काफ़ी देर बाद कोर्रेया ने कहा, “अरर… और कुछ नहीं है, बस ये शख़्स नया-नया गढ़ा गया है। इसीलिए जब यह चलता है, तो ठोकर खाता है और बोलता है, तो अनजाने-अर्थहीन शब्द बोलता है।”

दूसरे लोगों ने भी उसके बारे में बात कही, लेकिन वो उन्हें ठीक से समझ नहीं पाया।

“क्या मैं बैठ जाऊं?” एक वक्फ़े के बाद उसने पूछा, “मैं फिर से कोई खींचतान नहीं करूंगा। कोई झगड़ा नहीं…”

उन्होंने आपस में बात की और उसे छोड़ दिया।

बुजुर्ग आवाज़ ने जब उससे सवाल करना शुरू किया, नूनेज़ ने ख़ुद को इस अंधेर नगरी में अंधेरे से भरी कोठरी में एक अंधे बुजुर्गवार और उनकी आज्ञाकारी अंधी भीड़ के सामने आसमान, पर्वत, रंग और नज़ारों से भरे उस संसार की व्याख्या करते पाया, जहाँ से गिरकर वह यहाँ आया था। वह जानता था कि वो कुछ भी कहेगा, ये लोग उस पर भरोसा नहीं करेंगे। बल्कि ये तो उसके बहुत से शब्दों से भी परिचित नहीं हैं। लेकिन इनकी भी गलती नहीं, आख़िर ये पिछली चौदह पीढ़ियों से अंधापन झेल रहे हैं और देखने वालों के संसार से पूरी तरह से कटे हुए हैं। दृश्य, नज़ारे या जीवन के कौतुकों को देखने वाली दृष्टि से जुड़े तमाम शब्द इनके शब्दकोश में मिट चुके हैं। धूमिल हो चुके हैं। वे ढलवां चट्टानों और घाटी के अलावा और कुछ न सोचने, न जानने के लिए अभिशप्त थे। इनकी कल्पनाएं आँखों पर नहीं तैरती थीं, बल्कि शब्द और स्पर्श रूप में उनके कानों और अंगुलियों के पोरों पर ठहरी रहती थीं। जल्द ही नूनेज़ ने महसूस किया कि अपने जन्म-स्थान से जुड़ी आश्चर्यजनक बातें और कुदरती उपहार की बड़ाई का यहाँ कोई फ़ायदा नहीं। आँखों और उनकी उपयोगिता समझाने की एक निहायत ही असफल कोशिश के बाद वह चुप हो गया। बुजुर्गवार ने गहरी सांस ली और उसके सामने जीवन, धर्म, दर्शन की व्याख्या करने लगे। वे बता रहे थे कि दुनिया (माने उनकी घाटी) पहले चट्टानों में खाली सुराख़ जैसी थी। फिर वो प्रकट हुए, जिन्हें छुआ नहीं जा सकता। फिर लामा आए। उनके बाद कुछ दूसरे जीव, फिर इंसान और सबसे आख़िर में वे फ़रिश्ते, जिन्हें केवल गाते-गुनगुनाते सुना जा सकता है, छुआ नहीं जा सकता… इस आख़िरी बात ने नूनेज़ को बेतरह उलझा दिया और वह तब-तक उलझा ही रहा, जब-तक कि उसे पंछियों का ख़्याल नहीं आ गया।

वह नूनेज़ को बताते रहे कि कैसे यह समय सर्दी और गर्मी में बंटा हुआ है और कैसे गर्मी में सोना और सर्दी में काम करना अच्छा था… (जो दरअसल रात और दिन की अंधी समतुल्यता से उपजी प्रतिस्थापना थी) उन्होंने कहा, नूनेज़ ज़रूर सीखने और उनके द्वारा अर्जित ज्ञान से दूसरों की सहायता करने के लिए बनाया गया है। वह अपनी मानसिक अबूझता, अबोधता और लड़खड़ाहटों, ठोकरों से भरे व्यवहार को दुरुस्त कर सकता है। बस उसे हौसला बनाए रखना होगा और सीखने के प्रति पूरा समर्पण दिखाना होगा। इस बात पर बाक़ी सभी लोग उत्साह जगाने वाली बातें करने लगे। फिर उन्होंने कहा, “रात (अंधे लोग दिन को भी रात कहते हैं) अब दूर जा चुकी है। सबके लिए बेहतर होगा कि वे सो जाएं।”

“क्या तुम सोना जानते हो?” सवाल नूनेज़ से किया गया था। जिसके जवाब में नूनेज़ ने कहा, “हाँ वो जानता है, लेकिन उससे पहले उसे खाना चाहिए।”

वे उसके लिए खाना माने- लामा का दूध और नमकीन रोटी ले आए और उसे एकांत स्थान पर ले गए। वहाँ नूनेज़ खाता रहा और वे कान लगाए उसका खाना सुनते रहे। जब वह खा चुका, तो उसे सोने का आदेश देकर वे सब भी सोने चले गए। और तब-तक सोते रहे, जब-तक कि पहाड़ों की सर्द शाम ने उन्हें काम में जुट जाने के लिए जगा नहीं दिया। लेकिन नूनेज़ नहीं सोया। एक पल के लिए भी नहीं…

बजाए इसके वह बैठ गया और उन अप्रत्याशित परिस्थितियों के बारे में सोचने लगा, जहाँ वह अनायास ही आ फंसा था। बीच-बीच में वो हँस पड़ता। कभी हैरानी से, कभी गुस्से से…

“अविकसित दिमाग!” उसने दोहराया, “अभी तक इंद्रियाँ नहीं पनप सकीं! हुंह… ये लोग नहीं जानते कि ये ईश्वर द्वारा भेजे गए दूत का अपमान कर रहे हैं। लेकिन मैं इन्हें सही-गलत समझाऊंगा। बस मुझे कुछ सोचना होगा। हाँ मैं कुछ सोचता हूँ…”

वह सूरज ढलने तक सोचता रहा। नूनेज़ के पास सुन्दरता को महसूस करने वाली दृष्टि थी। उसे ऐसा लग रहा था कि घाटी में चारों ओर फैले बर्फ़ीले मैदान की चमक और जलधाराएं उन चंद सबसे ख़ूबसूरत चीजों में से एक थीं, जो उसने आज तक देखी थीं। उसकी आँखें गाँव की अगम्य शोभा और गोधूलि में तेज़ी से डूबते जुते हुए खेतों से गुज़र रही थीं, अचानक भावनाओं का एक ज्वार उसके भीतर हरहराने लगा। उसने देखने की शक्ति देने के लिए ईश्वर को हृदय की अतल गहराइयों से ‘शुक्रिया’ कहा। पास ही कोई उसे पुकार रहा था, “हेइ…यू… बोगोटा! य…य बगोटा यहाँ आओ।”

वह मुस्कुराते हुए खड़ा हुआ, वह इन लोगों को दिखा देगा कि ‘दृष्टि’ क्या कर सकती है। वे उसे खोजेंगे, लेकिन खोज नहीं पाएंगे।

“तुम उठे नहीं बोगोटा,” आवाज़ में सवाल था।

वह बेआवाज़ हँसा और दबे पाँव एक ओर खिसकने की कोशिश की।

“घास को मत कुचलो बोगोटा। यहाँ इसकी इजाज़त किसी को नहीं है।”

नूनेज़ हैरान होकर रुक गया, “जिन क़दमों की आवाज़ मुझे सुनाई नहीं दी, इसने कैसे सुन ली?”

तब तक आवाज़ का मालिक रंग-बिरंगे पत्थरों के रास्ते दौड़ते हुए उसकी ओर बढ़ा। नूनेज़ ने अपने पैर वापस खींच लिए और चिल्लाया, “मैं यहाँ हूँ। इधर…”

“जब मैंने पहले आवाज़ लगाई, तो तुम क्यों नहीं आए?” अंधे आदमी ने पूछा, “क्या तुमको बच्चों की तरह ले जाना पड़ेगा? क्या तुम चलते वक़्त रास्तों की आवाज़ नहीं सुन सकते?”

नूनेज़ हँसा, “मैं देख सकता हूँ।”

“हुंह ये ‘देखना’ क्या है? ऐसा तो कोई शब्द नहीं होता!” अंधा ने कहा और थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। मानो कुछ सोच रहा हो। फिर एक वक्फ़े के बाद बोला, “ख़ैर छोड़ो ये बकवास। मेरे क़दमों की आवाज़ के पीछे चले आओ।”

थोड़े गुस्से के साथ नूनेज़ उसके पीछे चल पड़ा, “मेरा मौक़ा आएगा।”

“अभी तुम सीखोगे,” अंधे आदमी ने उत्तर दिया, “इस संसार में सीखने के लिए बहुत कुछ है।”

“क्या तुमसे कभी किसी ने नहीं कहा कि अंधों की नगरी में एक आँख वाला राजा होता है?”

“अब ये अंधा क्या है?” अंधे आदमी ने कंधे उचकाते हुए लापरवाही से सवाल किया।

चार दिन बीत गए, लेकिन अंधों की बस्ती पधारा ‘राजा’ पांचवे दिन भी किसी कोने में बेनाम खोया रहा। वो वहाँ अभी भी अनाड़ी, उद्दंड, बेढंगा और अजनबी शख़्स बना हुआ था। अलबत्ता उसे यह समझ आ चुका था कि यहाँ ख़ुद को स्थापित करना उतना सरल नहीं, जितना उसने सोचा था। इसीलिए इस बीच उसने अपने ‘तख़्ता पलट करने के विचार’ पर ध्यान लगाए रखने के बावजूद बिना कोई सवाल किए, वह तमाम काम किए जो उससे करने को कहे गए। नतीजा, वह अंधों की नगरी के बहुत से व्यवहार सीख गया। उनके साथ रात को काम करते, बाहर जाते हुए उसने पाया कि यह भारी क्लेश पैदा करने वाली स्थिति है और फैसला किया कि उसे सबसे पहले यही चीज बदलनी है।

यहाँ के लोग सरल और परिश्रमी जीवन जीते थे। ये लोग सदाचार और ख़ुशी के उन सभी तत्वों से भरे थे, जिन्हें आसानी से समझा जा सकता था। यहाँ लोग कठिन परिश्रम करते थे, लेकिन बेगार और शोषण के तौर पर नहीं। इन लोगों के पास ज़रूरत के मुताबिक खाना था। कपड़े थे। आराम करने के दिन और मौसम थे और प्रेम था। वे गाते थे। बजाते थे और दिल से जीते थे।

यह शानदार अनुभव था कि वे अपने सुव्यवस्थित संसार में आत्म-विश्वास और उम्मीद के साथ गतिमान थे। यहाँ सब कुछ उनकी ज़रूरत के मुताबिक था। घाटी के तमाम रास्ते आपस में जुड़े हुए थे और ख़ास तरह की पैदल-पट्टी के कारण बिल्कुल अनोखे जान पड़ते थे। घास के मैदानों और रास्तों से जुड़ी तमाम अनियमितता और कठिनाइयाँ बहुत पहले ही ख़त्म हो गई जान पड़ती थीं। उनके कान अद्भुत रूप से तेज़ थे। वे काफ़ी दूर के व्यक्ति की भी हल्की सी हरकत को पकड़ लेते थे। बल्कि वे तो दिल की धड़कनों की आवाज़ भी सुन सकते थे। उनके स्वरों का उतार-चढ़ाव लंबे समय से बिना बदले उनके साथ था। उनके स्पर्श की भाषा और कुल्हाड़ी, कुदाल व खुरपी के साथ उनके काम की विधियाँ इतनी सहज थीं, जितना कि बागवानी का काम हो सकता है। उनकी सूंघने की शक्ति भी असाधारण थी। वे लोगों को उनकी गंध से उसी तेजी से पहचान लेते थे, जितनी तेजी से कुत्ते पहचान लेते हैं। वे लामाओं की देखभाल के लिए चट्टानों के ऊपर तक का चक्कर बड़े आराम से लग लेते थे।

नूनेज़ ने न जाने कितनी मर्तबा उन्हें ‘दृष्टि’ का मतलब समझाने की कोशिश की।

“इधर देखो… यहाँ,” वह कहता और फिर धिक्कारता, “तुम लोग मेरे विशेष गुण को समझ नहीं रहे हो।”

एकबार उनमें से कुछ लोग उसकी बात सुनने को तैयार हो गए। वे आए और सिर झुकाकर, कान चौकन्ने करके उसकी बातें सुनने लगे। उसने भी उन्हें यह समझाने में अपनी पूरी योग्यता लगा दी कि दृष्टि क्या होती है। उसके इन श्रोताओं में एक लड़की भी थी। दूसरों से कम धँसी आँखों और कत्थई पलकों वाली… न जाने क्यों नूनेज़ ख़ासतौर पर उस लड़की को अपनी तमाम बात समझा देना चाहता था। उसने उन्हें सुन्दर नज़ारों के बारे में, पहाड़ों के बारे में, आसमान के बारे में, सूरज के उगने और ढलने के बारे में न जाने कितनी बातें बताईं। न जाने कितनी बात कीं। वे सब उसकी बातें ताज्जुब के साथ सुनते रहे, फिर बोले कि पहाड़ों जैसी कोई चीज़ नहीं है। चट्टानों के जिस आख़िरी छोर पर लामा विचरते हैं, वही दुनिया का अन्तिम किनारा भी है। इसके बाद ब्रह्मांड की छत है। उसमें छेद हैं, इसीलिए वहाँ से बर्फ़ और ओस झरती रहती है। जब नूनेज़ ने विरोध करने का प्रयास किया कि संसार का न तो कोई किनारा है और न छत। उन्होंने कहा तुम्हारे खयालात शैतानी हैं।

बेचारा नूनेज़… उसने उन्हें लाख बादल, आसमान और सितारों का सच बताने की कोशिश की, लेकिन वे अपनी छत की कल्पनाओं से बाहर आने को तैयार नहीं थे। लेकिन उसने देखा कि किसी हद तक उसने उनके विश्वासों को हिला दिया है। बस उसने उसी क्षण से इन लोगों के सामने दृष्टि का महत्व सिद्ध करने की कोशिशें शुरू कर दी। एक सुबह उसने पेड्रो को गली नंबर सत्रह पर चलकर मुख्य घरों की ओर आते देखा। लेकिन सुनने या सूंघने के लिहाज़ से वह अभी भी दूर था। उसने उन लोगों से कहा, “देखो थोड़ी देर में पेड्रो यहाँ आएगा।”

उनमें से एक बूढ़ा आदमी बोला, “पेड्रो का उस रास्ते पर कोई काम नहीं पड़ता।” और सचमुच, मानो अपने लोगों की बात को सही साबित करने के लिए ही पेड्रो (जो अब तक बहुत नज़दीक आ गया था) गली नंबर दस की ओर मुड़ गया। नतीजा आँख वाले नूनेज़ को बिन आँखों वाले लोगों की हँसी का पात्र बनना पड़ा। बाद में जब नूनेज़ ने पेड्रो से उस बाबत पूछा, तो उसने न केवल कुछ भी कहने से मना करते हुए चेहरा घुमा लिया, बल्कि उसी पल से नूनेज़ के साथ तल्ख़ व्यवहार अपना लिया। लेकिन इस सबके बावजूद भी नूनेज़ ने हार नहीं मानी।

कुछ दिन बाद उसने उन लोगों से कहा कि वो दूर से ही बता सकता है कि घरों में क्या हो रहा है। उसे लगा था कि यह उन्हें चमत्कृत कर देगा, लेकिन जैसे उन लोगों के लिए यह सब कोई मायने ही नहीं रखता था। तब उसने सोचा कि क्यों न वो खेत में काम करते किसी आदमी को पीछे से कुदाल उठाकर धरती पर गिरा दे। इससे आँखों की ज़रूरत सिद्ध हो जाएगी। अपनी सोच को अंजाम देने में वो इतना बेसुध हो गया था कि उसे होश तब आया, जब कुदाल उसके हाथ में थी। ऐन तभी उसने पाया कि उसके सर्द ख़ून में अंधे आदमी पर हमला करने की ताक़त नहीं है।

वह ठिठक गया, लेकिन तब-तक वे सब जान चुके थे कि उसने कुदाल उठाई है। वे भी हाथ उठाकर तैयार हो गए और कान लगाकर सुनने लगे कि वह आगे क्या करने वाला है।

“कुदाल को नीचे रखो,” उनमें से एक ने कहा, तो नूनेज़ को अपने भीतर फैलते डर का अहसास हुआ।

वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह थोड़ा आगे बढ़ा और फिर झटके से सामने खड़े आदमी को धकेलकर उसके पीछे से गाँव के बाहर भाग निकला।

घास को कुचलते हुए वह उन्हें काफ़ी पीछे छोड़ आया था, लेकिन उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे वह चारों ओर से घिर चुका है। क्योंकि भागते-भागते वह उस दीवार के पास तक आ गया था, जो इस घाटी का अन्तिम छोर कही जा सकती थी। अब-तक उसे यह अहसास भी होने लगा था कि आप उन लोगों से नहीं लड़ सकते, जो आपसे एक भिन्न मानसिक स्तर पर खड़े हों। दूर से ही उसने देखा कि बहुत सारे लोग हाथों में कुदाल लिए घरों से निकलकर उसकी ओर बढ़े आ रहे हैं। वे लगातार बात करते हुए बहुत धीरे-धीरे चल रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में वे रुक जाते और जैसे कुछ सूंघने की कोशिश कर रहे हों।

पहले-पहल नूनेज़ को यह देखकर हँसी आई, लेकिन वो हँस नहीं सका। क्योंकि उनमें से एक ने घास के मैदान में अपने शिकार की बू सूंघ ली थी और अब वो झुककर उस गंध का पीछा करते हुए उसकी ओर बढ़ रहा था।

पाँच-एक मिनट तक नूनेज़ घेराव का बढ़ना देखता रहा। फिर क्या करूँ-क्या नहीं की डांवाडोल मनःस्थिति ने उसे उन्मत्त सा बना दिया। वह खड़ा हुआ, एक क़दम आगे बढ़ा और फिर वापस उस ओर मुड़ने को प्रवृत्त हुआ, जहाँ वे अर्धचंद्राकार घेरा बनाए थिर, लेकिन कुछ सुनते हुए से खड़े थे।

वह भी दोनों हाथों से कुदाल को कसकर पकड़े हुए चुपचाप खड़ा था। क्या उसे उन पर हमला करना चाहिए?

उसके कानों में लगातार एक धुन बज रही थी, “अंधों की नगरी में एक आँख वाला राजा होता है।”

“क्या उसे उन पर हमला करना चाहिए?”

उसने पीछे देखा। वहाँ अलंघ्य दीवार थी। हालाँकि उसमें दरवाजे थे, लेकिन फिर भी अलंघ्य… जबकि सामने लोग घरों से भी निकलकर बाहर आना शुरू हो गए थे।

“क्या उसे उन पर हमला करना चाहिए?”

“बोगोटा…” उनमें से एक ने आवाज़ दी, “बोगोटा कहाँ हो तुम?”

उसने कुदाल पर पकड़ मजबूत की और झुके-झुके ही घास के मैदान से घरों की ओर बढ़ा, लेकिन जैसे ही वो आगे बढ़ा, उन्होंने उसकी ओर घेरा कसना शुरू कर दिया।

“अगर उन्होंने मुझे छुआ भी, मैं उन्हें ख़त्म कर दूँगा,” वह चीखा, “ईश्वर की शपथ मैं कर दूँगा… म्मैं बहुत गहरी चोट दूँगा। सच में… और देखो इस घाटी में वही करूंगा, जो मैं चाहता हूँ। सुन रहे हो न? मैं व्वही करूंगा, जो चाहूँगा और जहाँ चाहूँगा, वहाँ जाऊंगा।”

वे तेज़ी से उसकी ओर बढ़े। हालाँकि टटोलते हुए, लेकिन जल्दी-जल्दी। अब यह उस खेल जैसा नज़र आने लगा था जिसमें एक को छोड़कर बाक़ी सब अंधे थे।

“उसे पकड़ लो!” एक चिल्लाया।

ख़ुद को घेरे की नोक पर खड़े देख नूनेज़ ने अचानक अपने भीतर संकल्प और सक्रियता का अनुभव किया।

“तुम लोग समझ नहीं रहे हो,” वह मानीखेज़ स्वर में चिल्लाया, “तुम लोग अंधे हो और मैं देख सकता हूँ। मुझे अकेला छोड़ दो!”

“बोगोटा कुदाल रख दो। घास को मत कुचलो। हटो वहाँ से!”

अन्तिम आदेश थोड़ा गुस्से के साथ और मुंह बनाकर दिया गया।

“मैं तुमको मारूँगा,” भर्राए से गले से उसने धमकी दी, “भगवान कसम म्मैं मार-वार दूँगा। मुझे अकेला छोड़ दो।”

और अंधों की नगरी में राजा होने का सपना देखने वाली एकलौती दृष्टि ने भागने का मन बना लिया। हालाँकि नूनेज़ साफ-साफ नहीं जानता था कि उसे किधर दौड़ना है, फिर भी उसने भागना चुना। उससे हाथ भर दूर एक विपक्षी खड़ा था, लेकिन उसने हमला करने के बारे में सोचा भी नहीं, क्योंकि उस पर हमला करने का ख़्याल भी खौफ़नाक था। थोड़ा आगे जाकर वह रुका और छिपने के लिए माकूल जगह तलाशते हुए चट्टान की उस ओर बढ़ा, जिधर दरार थोड़ी गहरी थी। तभी दूसरी ओर खड़े लोग उसके क़दमों की आहट भांप गए और हड़बड़ी में एक-दूसरे पर हाथ-पाँव मारने लगे। नूनेज़ को लगा कि अब वह पकड़ लिया जाएगा। कुदाल आपस में टकराईं। हल्के धमाके जैसी आवाज़ हुई और घेरा बनाए लोग कराहते हुए एक-दूसरे के ऊपर गद-पद गिरते चले गए। वह आगे बढ़ दिया।

आगे… और थोड़ी देर में वो घरों के पास पहुँच चुका था। जबकि कुदाल और निराई के औज़ार घुमाते अंधे बड़ी तेजी से इधर-उधर दौड़ रहे थे।

उसने अपने पीछे क़दमों की आवाज़ सुनी और देखा कि एक लंबा-तगड़ा शख़्स उसकी ओर बढ़ा आ रहा था। नूनेज़ साहस खो बैठा। उसने कुदाल एक तरफ फेंकी और ख़ुद दूसरी ओर भाग दिया।

वह जबरदस्त आतंकित था। कभी इधर भागता, कभी उधर… वह न जाने क्यों चकमा देने की कोशिश कर रहा था, जबकि यहाँ इसकी ज़रूरत भी नहीं थी। और अपनी इसी चारों ओर देख लेने की हड़बड़ी में वो बार-बार टकरा रहा था। ठोकर खा रहा था। अगले पल वह गिर पड़ा, जिसकी आवाज़ उन्होंने सुन ली। हताशा बुरी तरह से नूनेज़ पर हावी हो रही थी। सामने अलंघ्य दीवार मौन खड़ी थी, लेकिन उसमें बने दरवाज़े स्वार्गिक आमंत्रण जैसे नज़र आ रहे थे। वो पागलों की तरह उस ओर दौड़ा और बिना इधर-उधर देखे गिरता-पड़ता पुल पार कर गया।

और इस तरह उसका तख़्ता-पलट करने का ख़्याल यहीं ख़त्म हो गया।

वो अंधों की घाटी की दीवार के उस पार दो दिन-दो रात ठहरा रहा। बिना छत और खाने के और जो भी अप्रत्याशित घटित हुआ उसके बारे में सोचता रहा। इसी सोच-विचार के दौरान उसे बार-बार पुरानी कहावत ध्यान आती रही- “अंधों की नगरी में काना राजा…” वह मुख्यतया घाटी के लोगों से लड़ने, उन्हें जीतने के बारे में सोच रहा था। लेकिन जितना सोच रहा था, उतना ही ज़्यादा महसूस कर रहा था कि ऐसा कोई भी काम संभव नहीं। क्योंकि न उसके पास हथियार हैं और न उनके होने की संभावना…

सभ्यता का क्रांतिकारी कीड़ा तो उसे बोगोटा में भी काटता था, लेकिन यहाँ वह अपने आपको कतई इस स्थिति में नहीं पा रहा था कि नीचे जाए और अंधों को मौत के घाट उतार दे। बेशक अगर वह ऐसा कर देता, तो शायद वह उन्हें संधि की शर्त सुना सकता था। मगर… नूनेज़ को नींद आ रही थी। अब नहीं तो थोड़ी देर बाद उसे सो ही जाना था, लेकिन भूख भी चरम पर थी।

उसने पाइन के पेड़ से फल हासिल करने की पुरज़ोर कोशिश की। हालाँकि यह भी सरल नहीं था, लेकिन कुछ-एक फल तो उसने पा ही लिए। पास ही लामा चर रहे थे। न जाने क्यों, लेकिन उनकी भंगिमा में संदेह था और वे अपनी भूरी आँखों से उसे अविश्वास से देख रहे थे। जब वो उनके पास गया, वो बिगड़ गए। लिहाज़ा उसने दूसरे दिन ये जोखिम नहीं उठाया। आख़िरकार समझौते की सूरत पर बात करने की कोशिश करने के लिए उसने वापस अंधों की घाटी का रुख़ किया। जलधारा के सहारे नीचे उतरते हुए वो चिल्लाया और तब तक हाँक लगाता रहा, जब-तक कि दो अंधे उससे बात करने के लिए बाहर न निकल आए।  उसने कहा, “मैं पागल था, पर ताज़ा-ताज़ा…”

उन्हें यह स्वीकार भला लगा। उसने उसके पिछले किए पर शर्मिंदगी जाहिर की और कहा कि अब वो थोड़ा समझदार हो गया है।

नूनेज़ बेइरादा रो पड़ा। शायद उस भूख और कमजोरी के कारण, जो उस पर बीमारी की तरह हावी हो चुकी थी। शुक्र है, उन्होंने इसे नाटक नहीं माना।

उन्होंने उससे पूछा, “क्या वो अब भी ‘दृष्टि’ के बारे में सोचता है।”

“नहीं… वो सब बकवास है। कोरी मूरखता! इस शब्द का कोई अर्थ नहीं। कोई नहीं…!”

फिर उन्होंने सवाल किया, “ऊपर क्या है?”

“इंसान के क़द से दस-दस गुना ऊपर एक छत है। चट्टानी छत… लेकिन बहुत मुलायम,” नूनेज़ ने जवाब दिया और फिर से आंसुओं में डूब गया, “अब इससे पहले कि तुम मुझसे एक और सवाल करो, प्लीज़… भगवान के लिए मुझे खाना दे दो। नहीं तो मैं मर जाऊंगा।”

नूनेज़ मन ही मन किसी बड़ी सी सज़ा की कल्पना कर चुका था, लेकिन अंधे लोग सहनशील थे। उन्होंने उसके विद्रोह को पागलपन, जड़ता और असुरक्षा-बोध का सबूत माना। और उसे खिला-पिलाकर स्वस्थ करने के बाद जब वे उसे काम पर ले गए, तो उन्होंने उसे सरल लेकिन भारी काम दिया। उसके पास भी दूसरा कोई चारा नहीं था। इसलिए वो वह सब करता गया, जो उन्होंने उससे कहा।

कुछ दिन तक उसकी कमजोरी बरकरार रही। उन लोगों ने इस बात का बड़ी दरियादिली से ख़्याल रखा और इस बात ने उसकी परवशता के भाव को और अधिक पुष्ट किया। लेकिन दो मुश्किलें थीं। एक- वे उसके रात को काम करने के दुराग्रही थे, जो नूनेज़ के लिए परेशानी (बहुत बड़ी परेशानी) की बात थी। दूसरा- घाटी के लोग किसी भी तरह उसे सुधारने का मन बना चुके थे। उन्होंने अपने दार्शनिक उसके पास भेजे। वे आए, उसके साथ उसकी दिमागी कमियों, दुष्टताओं, चालाकियों के बारे में बात की और उसकी खाम-ख्यालियों, शक्की-झक्की बातों के लिए इतनी ज़ोरदार फटकार लगाई कि उसे शक होने लगा, “कहीं मैं सच में ही तो किसी वहम का शिकार नहीं था, जो सोचता था कि इस दुनिया के पार कोई दूसरी दुनिया है…!!!”

इस तरह नूनेज़ अंधों की नगरी का बाशिंदा बन गया। अपनी सामान्यीकरण करने की आदत को छोड़कर उसने घाटी के लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जानना, समझना शुरू कर दिया था। जबकि इस बीच घाटी के पार की दुनिया और भी ज़्यादा शुष्क, और भी ज़्यादा एकाकी, और भी ज़्यादा प्रयोजनवादी, और भी ज़्यादा बनावटी, और भी ज़्यादा असंपृक्त हो चुकी थी। घाटी में याकोब था, उसका मालिक… जो नाराज न हो तो बड़ा दयालु था। यहाँ पेड्रो था, याकोब का भतीजा और यहाँ मेडिना-सरोते भी थी, याकोब की सबसे छोटी बेटी। अंधों की इस नगरी में नूनेज़ के लिए वो एक सुकून जैसी थी, क्योंकि उसके पास एक नफ़ासत से तराशा हुआ चेहरा था। हालाँकि नूनेज़ को वो पहली ही नज़र में सुन्दर लगी और बाद में समूची कायनात की सबसे ख़ूबसूरत शै बन गई, लेकिन उसकी आँखें घाटी के दूसरे लोगों की तरह भीतर धँसी हुई नहीं थीं, बल्कि वो कुछ इस तरह थिर रहती थीं मानो अगले ही पल झटके से खुल जाएंगी। उसकी ख़ूबसूरत घनेरी पलकें उस गहरी विद्रूपता से लड़ती-सी मालूम होती थीं, जिससे घाटी खुद अनजान थी, तो उसकी आवाज़ ख़ासी खनकदार होने के बावजूद घाटी के कानों में तोष भाव नहीं घोल पाती थी, क्योंकि उसमें भी उन्हें एक तरह का अपरिचय जान पड़ता था। सबसे अहम उसमें वो तसल्लीबख़्श नरमाहट और चिकनाई नहीं थी, जो किसी अंधे के लिए स्त्री-सौंदर्य का आदर्श होती है। इसीलिए वह किसी के प्रेम की पात्र नहीं थी।

फिर एक ऐसा समय आया, जब नूनेज़ सोचने लगा कि क्या वो उसे जीत सकता है? अगर ऐसा हो गया तो वह अपनी ज़िंदगी के बाक़ी दिन घाटी में बाखुशी गुजार लेगा।

वो घंटों उसे देखता रहता और उसके छोटे-छोटे काम करने के मौक़े ढूँढता। धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि मेडिना भी उसपर ध्यान दे रही है।

एक छुट्टी के दिन सितारों की मद्धम रोशनी में वे एक-दूसरे के क़रीब बैठे हुए थे। कुदरत का संगीत कानों में अजब-सा रस घोल रहा था। नूनेज़ के प्रेमातुर हाथ उसकी ओर बढ़े। वो मेडिना को अपने अकवार (बाहुपाश) में जकड़ लेना चाहता था, लेकिन उसने बड़ी नरमी से उसका कसाव ढीला कर दिया।

एक और दिन वे अंधेरे में खाना खाने बैठे थे। मेडिना के हाथ उसे तलाश रहे थे (कुछ देने के लिए), इत्तेफाक से तभी कोई शोला भड़क उठा और वक़्त की चादर पर बिखरी स्याहियों के बीच नूनेज़ ने उसके चेहरे की कोमलता बहुत गहरे तक अपने भीतर उतरते महसूस की।

वो उससे बात करना चाहता था। खूब सारी बात… इसीलिए एक रात, जब वो चांदनी में नहाई हुई कताई कर रही थी और चांद उसे गूढ़ पहेली जैसा रहस्यमई बना रहा था, वो उसके पास गया। वह उसके पैरों के पास बैठ गया और उसे बताया कि वो उसे कितना प्यार करता है। बताया कि वो उसे कितनी सुन्दर लगती है। नूनेज़ की आवाज़ में इश्क़ था। वह एक नरम थरथराहट के साथ बोल रहा था, जो डर के नज़दीक जान पड़ती थी। इससे पहले किसी ने इस तरह मेडिना के मन को नहीं छुआ था। उसने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया, लेकिन साफ था कि वो नूनेज़ के शब्दों से प्रभावित थी।

इसके बाद जब भी मौक़ा मिलता, नूनेज़ उससे बात करने बैठ जाता। अब ये घाटी ही उसका संसार थी और उसके पार की वो दुनिया, जहाँ धूप के साए हैं, उसके लिए ऐसी परिकथाओं जैसी हो चली थी जो न जाने कब उसके कानों में पड़ी थी। मेडिना से बातचीत के दौरान नज़रों और नज़ारों की बात वो कभी-कभार ही करता था। मेडिना को ये बातें किसी काव्यात्मक कल्पना जैसी लगती थीं। चांद, सितारों, आकाश, पहाड़ों और उसके अपने शफ़्फ़ाफ़ हुस्न से लबरेज़ नूनेज़ के बयानों को वो बहुत ध्यान से सुनती थी। हालाँकि बहुत सी बात वो समझ नहीं पाती थी, बहुत सी बातों पर उसे भरोसा नहीं होता था और बहुत सी बात उसे उलझा देती थीं, लेकिन इन्हें सुनते हुए वह एक रहस्यमय आनंद से भर जाती थी और ऐसे दिखाती थी, जैसे वो सब समझ रही हो।

उधर नूनेज़ का प्रेम डर की परिधि लांघकर हौसले की सीमा में दाख़िल हो चुका था। अब वह याकोब और घाटी के दूसरे बुजुर्गों से उसका हाथ मांगने के लिए तैयार था, लेकिन मेडिना डरती थी और बार-बार नूनेज़ का याकोब से मिलना टाल देती थी, लेकिन फिर भी याकोब को पता चल गया कि मेडिना-सरोते और नूनेज़ एक-दूसरे के प्रेम में हैं। उसे यह बताने वाली मेडिना की बड़ी बहन थी। और फिर आरंभ हुआ मेडिना-सरोते और नूनेज़ के प्रेम का विरोध….

ये विरोध इसलिए नहीं था क्योंकि वे लोग मेडिना को बहुत अनमोल समझते थे। बल्कि ये विरोध हुआ, क्योंकि नूनेज़ उनके समाज में पुरुषों के लिए प्रचलित आदर्श मानदंडों के हिसाब से कई पायदान नीचे था, मूर्ख था और उनसे अलग भी था। मेडिना की बहन ने घाटी के लोगों का अपमान करने के कारण इस रिश्ते का सीधा और तीखा विरोध किया। बूढ़ा याकोब, जो अपने नए-नवेले, आज्ञाकारी, भोले-भाले, थोड़े बुद्धू-थोड़े अनाड़ी नौकर से लगाव महसूस करने लगा था, उसने भी कहा, “ये नहीं हो सकता।”

घाटी के सारे युवक नस्ल बिगड़ने के ख़्याल से बौखला रहे थे और गुस्से से फूंफकार रहे थे। उनमें से एक को तो इतना जोश चढ़ गया कि वह भन्नाकर उठा और नूनेज़ को चोट पहुँचाने की कोशिश की। पलटकर नूनेज़ ने भी उसे धकेल दिया। और इतने दिन बाद पहली बार उसे अपने देखने की ताक़त का अनुभव हुआ। हालाँकि रोशनी उस समय धुंधली सी ही थी, लेकिन उसने जबरदस्त बचाव किया। इसके बाद कोई भी, किसी की भी हिम्मत उस पर हाथ उठाने की नहीं हुई, लेकिन ब्याह अभी भी असंभव बना हुआ था।

याकोब अपनी पिछाईं की औलाद, अपनी सबसे छोटी बेटी, अपनी मेडिना से कुछ ज़्यादा ही जुड़ा हुआ था। वो उसके कंधे पर सिर रखकर रो दिया, “तुम जानती हो न मेरी बच्ची, वो परले दर्जे का बेवकूफ़ है। न जाने कैसे-कैसे भ्रम पाल रखे हैं उसने और वो कोई भी काम सही नहीं कर सकता।”

“जानती हूँ पापा,” मेडिना सिसकी, “लेकिन वो जो था, अब उससे बेहतर हो चुका है। बल्कि हर दिन बेहतर होता जा रहा है। और पापा वो बहुत मजबूत है। दयालु भी… दुनिया में सबसे ज़्यादा मजबूत और दयालु। ओ…और वो मुझे बहुत प्या… प्या…प्यार भी करता है। मैं भी…” उसने अटक-अटककर बात पूरी की।

बूढ़ा याकोब बेटी को गमगीन देखकर परेशान हो उठा। और फिर जो हुआ, उस सबके बावजूद वह बहुत सी बातों के लिए नूनेज़ को पसंद करता था। लेकिन समाज के विरुद्ध जाने का न उसमें साहस था और न मंशा… वह भारी क़दम के साथ घाटी के बड़े-बुजुर्गों से सलाह-मशवरा करने के लिए चला गया। वहाँ उसे जब-जब मौक़ा मिलता, वह नूनेज़ की तारीफ़ के छीटें मारते हुए कह देता, “लेकिन वो दिन पर दिन बेहतर होता जा रहा है। लगता है बहुत जल्द वो हम जैसा हो जाएगा।”

तब उन बुजुर्गों में से एक ने एक युक्ति सूझाई। वे यूँ तो हकीम थे, लेकिन चतुर दिमाग की वजह से घाटी में उनकी मान्यता बहुत थी। इस प्रकरण में वे नूनेज़ की बनावट में मौजूद गलती (आँखें) को सही करने के पक्ष में थे। एक रोज उन्होंने याकोब से कहा, “मैंने बोगोटा की जांच की है और मामला आईने की तरह साफ़ है। मुझे लगता है कि उसका इलाज हो सकता है।”

बूढ़ा याकोब बोला, “यही… मुझे इसी की उम्मीद थी।”

“हम्म… उसका दिमाग सही नहीं है।” अंधे हकीम ने कहा।

बुजुर्गों की सभा में बुदबुदाहट हुई, “अब… कुछ हो सकता है?”

“आह!” बूढ़े यकोब की आवाज़ में दर्द था।

हकीम ने अपने ही सवाल का जवाब देते हुए कहा, “एक अजीब चीज़ है, जो आँख कहलाती है। यह चेहरे पर एक महीन अवसाद रचने के लिए बनी होती है और अपने बगोटा को भी वही रोग है। इसने उसके दिमाग तक पर असर किया है। अमूमन इस रोग में यहाँ… भवों के नीचे की जगह फूल-सी जाती है। मैंने जांच में पाया कि नूनेज़ की भी यही हालत है। उसके पलकें हैं और तो और उसकी पुतलियाँ घूमती हैं। इसीलिए उसका दिमाग लगातार गुस्से और बेचैनी से भरा रहता है।”

“हैं?” बूढ़े योकोब ने एक नहीं दो बार हैरत जाहिर की, “हैं?”

“मुझे लगता है कि मैं यह बात दावे से कह सकता हूँ कि उसको पूरी तरह से सही करने के लिए हमें एक ऑपरेशन करके उसके शरीर से इस खिझाने वाले अंग को अलग करना होगा। ये ज़्यादा बड़ा नहीं, छोटा-सा ऑपरेशन होगा।”

“और फिर वो हमारे जैसा हो जाएगा?”

“हाँ… बिल्कुल हमारे जैसा!”

“शुक्र है विज्ञान का!”, याकोब ने गदगद कंठ से कहा और फौरन ही नूनेज़ को यह ख़बर सुनाने चल दिया।

लेकिन नूनेज़ ने इसे एक झटके के तौर पर ग्रहण किया। उसने गुस्से और चिढ़ के साथ कहा, “लगता है आपको अपनी बेटी का ख़्याल नहीं?”

लेकिन क्या क़िस्मत कि जिसको वो अपनी आँखों की ढाल बनाना चाहता था, वही उससे इसरार करते हुए हकीम साहब के औज़ारों का सामना करने को कहने लगी।

नूनेज़ बोला, “तुम मुझे नहीं चाहतीं। उफ्फ… क्या तुम… तुम सच में चाहती हो कि मेरी आँखें न रहें?”

मेडिना ने सिर हिलाकर हामी भरी।

“आँखें मेरी दुनिया हैं।”

मेडिना का सिर झुक गया।

“इस संसार में कितनी सुन्दर चीजें हैं। ये नन्हे फूल, ये चट्टानें, ये झरने, ये लहराते हुए फर्न, ये मुलायम घास, ये रूई-रूई बादल, ये धुआं-धुआं आसमान, ये गोधूलि, ये सांझ, ये सितारे… और तुम भी तो हो! केवल तुम्हें देखना हो, तब भी आँखों का होना सार्थक है। हाँ तुम्हें देखने के लिए… तुम्हारा यह सुन्दर-भोला चेहरा, ये नाजुक होठ, ये प्यारी बाहें, ये मुलायम हथेलियाँ… अरे तुमने मेरी आँखों को ही तो जीता है। ये मेरी आँखें ही तो हैं, जो तुम्हें देखने को बेवकूफों की तरह पगलाई रहती हैं। तुम्हें छू लेने को ढूँढती रहती हैं…. नहीं तुम मेरे साथ ऐसा नहीं करोगी। नहीं करोगी न?”

नूनेज़ के मन में जाने कितने सवाल उठ रहे थे। वह रुक गया और सवालों को अधूरा ही छोड़ दिया।

“काश… कभी-कभी…”, मेडिना ने कहा और बात पूरी किए बिना रुक गई।

“काश?” नूनेज़ ने मेडिना की ओर सशंक दृष्टि से देखा।

“मैं कई बार चाहती हूँ कि तुम इस तरह बात न करो।”

“किस तरह?”

“म्म… मैं जानती हूँ कि ये, मेरा मतलब तुम्हारी कल्पनाएं अच्छी हैं। मैं इन्हें पसंद करती हूँ, लेकिन अब…”

नूनेज़ को एक सर्द एहसास हुआ। “अब क्या?” उसकी आवाज़ टूट रही थी।

मेडिना चुपचाप खड़ी रही।

“तुम्हारा मतलब है कि… तुम सोचती हो कि… ओह… तुम्हें लगता है कि मुझे बेहतर होना चाहिए। हम्म बेहतर माने…”

उसे धीरे-धीरे चीजें समझ आ रही थीं। गुस्सा आ रहा था, जो दरअसल किसी इंसान से ज़्यादा भाग्य पर था। नियति पर… उस क़िस्मत के लिखे पर, जो उसे यहाँ तक ले आई थी और अब…

“मेडिना…”, उसने हौले से पुकारा।

न जाने क्यों उसके दिल के किसी कोने में इन लोगों के लिए सहानुभूति जाग रही थी। इस पल वो मेडिना के शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर उन शब्दों का भार साफ़ देख भी सकता था, जो वो कह नहीं पा रही थी। उसने मेडिना को अपनी बाहों में ले लिया और उसके कानों के पास अपने होठों की छुअन दर्ज़ कर दी। वे बहुत देर ऐसे ही चुपचाप, मौन में डूबे बैठे रहे।

“अगर मैं इसके लिए राजी हो जाता हूँ, तो?” आखिर में उसने बहुत ही सज्जनता से कहा।

“ओह…” मेडिना ने अपनी बाहें फैला दीं और जार-जार रोने लगी, “अगर तुम कर सको। वैसे केवल तुम ही ऐसा कर सकते हो।”

ऑपरेशन से पहले के दिन, जो उसे उसकी निम्नताओं से ऊपर उठाकर एक अंधे व्यक्ति की सामर्थ्य देने में व्यस्त थे, नूनेज़ नींद से कोसों दूर था। दिन में, जब दूसरे लोग आराम से सो रहे होते, वो बेमकसद सा बैठा जाने क्या-क्या सोच रहा होता। उसने अपना जवाब घाटी के लोगों को दे दिया था कि वो ऑपरेशन के लिए राजी है, लेकिन अब भी वो पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था। शायद वो इस सबके लिए तैयार ही नहीं था, फिर भी…

ख़ैर दिन यूँ ही गुज़रते रहे और आखिर वो दिन शुरू हो गया, जो उसकी दृष्टि का आख़िरी दिन था। दोपहर को मेडिना के सोने जाने से पहले, नूनेज़ उससे मिला।

“कल…” उसने कहा, “कल मैं नहीं देख पाऊंगा।”

“ओह नूनेज़…” मेडिना बोली। इस क्षण नूनेज़ ने उसके हाथ अपने हाथों में पूरी ताक़त से दबा रखे थे, “वे तुम्हें तकलीफ़ देंगे, लेकिन बहुत थोड़ी-सी। पर तुम्हें ये झेलना होगा। मेरे लिए… और फिर तुम जल्द ही इस दर्द से बाहर निकल आओगे। जल्द ही… ओह मेरे प्यारे नूनेज़, मैं तुम्हारे इस दर्द की कीमत चुकाऊंगी।”

नूनेज़ एक दर्द से भीग गया, जिसमें जितना वो डूबा हुआ था उतनी ही मेडिना भी शामिल थी। उसने मेडिना की बांह कसकर थाम ली और उसके होठों पर एक प्रगाढ़ चुम्बन छोड़ दिया। वह थोड़ी देर तक उसका भोला चेहरा देखता रहा। शायद आख़िरी बार…

“अलविदा…!” एक थरथराहट के साथ उसने अपने सबसे प्रिय दृश्य को अलविदा कहा और ख़ामोशी के साथ पलट गया।

मेडिना उसके भारी कदमों की आवाज़ सुन रही थी और उनका दर्द भी महसूस कर रही थी। न जाने उन कदमों की लय में क्या था, वो अपने आंसू रोक न सकी।

मेडिना से अलग होने के बाद नूनेज़ किसी ऐसी जगह पर जा बैठना चाहता था, जहाँ कुदरत अपनी पूरी सुन्दरता के साथ बिछी हो और गहरा एकांत हो। उसके पास बहुत कम वक़्त बचा था। बस कुछ घंटे… उसके बाद उसे अपनी दृष्टि को त्याग देना होगा। उसने आँखें बंद करनी चाहीं, लेकिन पलकें बेचैन होकर निमिष भर में खुल गईं। सामने दिन खिला हुआ था। दिन… जो सुनहरे पंखों वाले किसी फरिश्ते की तरह हौले-हौले उतर रहा था।

उसे ऐसा लग रहा था कि इस दिव्यता, इस भव्यता के सामने ये अंधों की घाटी, उसका प्रेम और वो ख़ुद भी किसी तुच्छ पाप से ज़्यादा कुछ नहीं हैं।

वो ऐसा करना नहीं चाहता था, लेकिन वो चलने लगा और अलंघ्य दीवार के सहारे चलते हुए वह चट्टानों के बाहर पहुँच गया। उसकी आँखें पूरे वक़्त सूरज से लिपटी बर्फ़ पर थीं।

उसने उनके असीमित सौंदर्य को देखा और कल्पना की कि वह इस सुख से हमेशा के लिए दूर होने जा रहा है।

उसे उस मुक्त संसार का ख़्याल आया, कभी वो जिसका हिस्सा था। वो संसार जो उसका अपना था। उसके सामने तमाम दृश्य साकार हो रहे थे। उसे बोगोटा याद आ रहा था। बोगोटा… विविध सौंदर्य से भरी एक जगह, जिसके दिन शानदार हैं और रात मायावनी। फ़व्वारे, मूर्तियाँ और सफ़ेद कलई पुते घर अहा ऐसी जगह, जो कहीं नहीं! उसे याद आया कि कैसे लोग दूर इलाक़ों से चलकर उसके व्यस्त बाज़ारों में और सड़कों पर घूमने के लिए आते थे। उसे नाव की सैर याद आई। याद आए, वो समंदर, वो टापू, वो आसमान, वो किले, वो इमारतें, वो फूल, वो रंग…

नूनेज़ की आँखें गहरी छानबीन के अंदाज़ में पहाड़ों के परदों को ताक रही थीं। उसने सोचा, अगर कोई उस जलधारा के मुहाने तक चला जाए तो वह पाइन की ऊंचाइयों तक भी जा सकता है, जो ऊंचे होते-होते इतने ऊंचे हो गए हैं कि मानो सँकरे रास्ते को पार करके ही दम लेंगे। लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद? चढ़ाई को क़ाबू में किया जा सकता है। बर्फ़ को भी, लेकिन फिर? फिर वहाँ आसमान की रोशनी से प्रकाशित बर्फ़ होगी और वो होगा आधा रास्ता….

नूनेज़ ने एक बार मुड़कर गाँव की ओर देखा। उसे मेडिना का ख़्याल आया, जो धीरे-धीरे छोटा होता गया। वह पहाड़ी की ओर मुड़ा और फिर चौकस ढंग से चढ़ने लगा।

शाम होने तक वह ज़्यादा नहीं चढ़ पाया था, लेकिन फिर भी काफ़ी ऊपर पहुँच चुका था। वह लेट गया। इस समय उसके कपड़े फट गए थे। जहाँ-तहाँ चोट लगी थी। कई जगह से ख़ून बह रहा था। खाल छिल गई थी, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान थी और वो ख़ुद को मुक्त महसूस कर रहा था।

जहाँ वह लेटा था, वहाँ से घाटी किसी गड्ढे जैसी नज़र आ रही थी। उसके चारों ओर पहाड़ थे। हाथ भर दूरी पर अपनी ही सुन्दरता में खोई चट्टान खड़ी थी। हरी घास, धूसर सांझ, कण्ठ में नारंगी सूरज दबाए किसी गहरी रहस्यमय छाया में लिपटा आसमान, नीले में बैंगनी मिलने से और श्यामल हो चला दिन और अनंत मौन में लीन समय….

सूरज ढल गया। रात आ गई। नूनेज़ फिर भी ख़ामोश लेटा रहा। राजा होना शायद यही होता है!

उपमा 'ऋचा'
पिछले एक दशक से लेखन क्षेत्र में सक्रिय। वागर्थ, द वायर, फेमिना, कादंबिनी, अहा ज़िंदगी, सखी, इंडिया वाटर पोर्टल, साहित्यिकी आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, कहानी और आलेखों का प्रकाशन। पुस्तकें- इन्दिरा गांधी की जीवनी, ‘एक थी इंदिरा’ का लेखन. ‘भारत का इतिहास ‘ (मूल माइकल एडवर्ड/ हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया), ‘मत्वेया कोझेम्याकिन की ज़िंदगी’ (मूल मैक्सिम गोर्की/ द लाइफ़ ऑफ़ मत्वेया कोझेम्याकिन) ‘स्वीकार’ (मूल मैक्सिम गोर्की/ 'कन्फेशन') का अनुवाद. अन्ना बर्न्स की मैन बुकर प्राइज़ से सम्मानित कृति ‘मिल्कमैन’ के हिन्दी अनुवाद ‘ग्वाला’ में सह-अनुवादक. मैक्सिम गोर्की की संस्मरणात्मक रचना 'लिट्रेरी पोर्ट्रेट', जॉन विल्सन की कृति ‘इंडिया कॉकर्ड’, राबर्ट सर्विस की जीवनी ‘लेनिन’ और एफ़. एस. ग्राउज़ की एतिहासिक महत्व की किताब ‘मथुरा : ए डिस्ट्रिक्ट मेमायर’ का अनुवाद प्रकाशनाधीन. ‘अतएव’ नामक ब्लॉग एवं ‘अथ’ नामक यूट्यूब चैनल का संचालन... सम्प्रति- स्वतंत्र पत्रकार एवम् अनुवादक