बिक गया मन…
झूठ और सच की
लगी थी बोलियाँ
और
ख़रीदारों की थी
लम्बी क़तारें
वो,
जो अपनों के
कभी अपने ना हुए,
ग़ैर की तकलीफ़ में हमदर्द
थे जो
पीठ पर अपनों के
करते वार लेकिन,
पाँव जिनके चूमते थे
सामने से
भाई, बेटा, बाप, माँ
सबके बने थे
…पर नहीं थे।
रात की तारीकी
हाथों में छुपाए
जो सुबह के मुँह पे
कालिख पोत देते
और बनकर
रोशनाई के फ़रिश्ते
अनगिनत दीये जलाकर
झूमते थे
वो सभी
महँगे लिबासों में
लिपटकर,
चेहरे पर पहने
तिरस्कारों का लहजा
सड़क पे बोली लगाने
आ गए थे।
दाम जो भी
चाहिए
मुँह माँगा ले लो।
झूठ हमको
बेच दो,
सच मार डालो;
और चमड़ी सच की
भी बेचो
हमें ही।
झूठ को हम
सच बनाकर बेचेंगे…
व्यापार है।
खेलना जज़्बात से भी
एक कारोबार है।
मोल भावों का
नहीं कुछ,
फेंक डालो।
आपके जज़्बात की
क़ीमत मिलेगी
…बेच डालो।
सोच कुछ पल;
घर में फैली
भूख, बीमारी को देखा
बिलबिलाती बेटी,
लाचारी को देखा
भावनाओं को
हथेली पर सजाए
आ गया बाज़ार में,
सूनी आँखें मूँदकर
बिकने खड़ा
क़तार में।
वो लगी बोली –
मेरे हाथों में
रखकर चन्द सपने,
छीन ली उसने
मेरी भावों भरी
वो पोटली।
मैं अभावों में
घिरा-सा,
मैं डरा-सा
अधमरा-सा।
हतप्रभ-सा
मूक-सा
अवाक-सा
हवन की समिधा,
चिता की
ख़ाक-सा…
था खड़ा थामे
विवशताओं का दामन…
बिक गया मन।