काँपते हाथ, लड़खड़ाती आवाज़
परित्यक्त हैं आज के दौर में।
धूमिल पड़ती रौशनी आँखों की
ढूँढती है ऐसी गली जहाँ
रास्ते पर आँखें बिछाए बैठे हों उसके अपने
उसके लिए,
इतनी सी इच्छा उसकी
कि मिले ऐसा रहन-सहन,
ऐसे हाथ और ऐसे नयन जो तिरस्कृत न करें।
पर अफसोस
जंग लगे ताले की तरह ही
मान उन्हें जर्जर, कमज़ोर,
असुरक्षित, नाकाबिल
और मानकर
दीमक लगे उस घरौंदे की तरह,
जिसके टूटते हुए दरवाज़े,
झड़ती हुई दीवारें,
ढलती हुई उम्र की कहानी कहते हैं,
क्यों है ऐसी स्वार्थपरता
जो घने पेड़ की छाँव को भी दुत्कारकर,
काट देता है तने उसके,
हालाँकि मिलेगी उसे छाया
और बहुतेरे लाभ अनगिनत,
पर आँखें मूँदकर
मारकर अपनी अंतरात्मा को भी,
लात मारता है वह उन लाभों को।
चुनता है कंक्रीट,
पर्यावरण का नारकीय स्वरूप,
और
छाँव टीन शेड की।

अनुपमा मिश्रा
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