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बाबू है एक लड़का। छोटा-सा, प्यारा-सा, सुन्दर-सा, होशियार। लेकिन थोड़ा-सा नटखट। बाबू है तीसरी कक्षा में। इस बार दिल लगाकर पढ़ा। मेहनत की। कोशिश की। नम्बर आए, पूरे बटा पूरे। बाबू ख़ुश। बाबू की टीचर भी ख़ुश। मम्मी ख़ुश, पापा ख़ुश। नानी ख़ुश, नाना ख़ुश।
ख़ुश होते हैं तो करते हैं क्या? खेलते हैं, कूदते हैं, नाचते-गाते हैं। दोस्तों के संग नाचते-गाते हैं। मज़े उड़ाते हैं। बाबू ने भी यही किया। रिपोर्ट कार्ड दिखाया, शाबाशी मिली। प्यार मिला। दुलार मिला। ‘इनाम’ का वादा मिला, बाबू ख़ुश। कूदकर बरामदे की सीढ़ियाँ उतरा, फाटक और बरामदे के बीच छोटा-सा बग़ीचा है—बग़ीचे में घास है, क्यारियाँ हैं, फूल हैं, पौधे हैं, बेल हैं, पेड़ हैं, बीच में सीमेण्ट का बना रास्ता है, रास्ते के दोनों ओर गमलों की क़तार है। गमलों में रंग-रंग के फूलों की बहार है। फूलों ने देखा, पत्तियों ने देखा, पेड़ पर बैठी चिड़िया ने देखा, कोटर में बैठे तोते ने देखा और घोंसले में बैठे-बैठे चिड़िया के नन्हें-मुन्नों ने उचक-उचककर देखा। देखा कि श्रीमान बाबू अपने खुड्डे दाँतों को चमकाते हुए, हँसते हुए चले आ रहे हैं। भई जिसके पूरे बटा पूरे नम्बर आएँगे, वह तो हँसेगा, खिलखिलाएगा। अगर फूलों के, पत्तियों के, पंखुड़ियों के, घास और बेल के, लता और पत्तों के, पेड़ के, गमलों के दाँत होते, अधर होते तो वह हँसते। ख़ूब-ख़ूब हँसते, बाबू उनका दोस्त जो ठहरा। पर उनके न दाँत, न अधर फिर कैसे हँसे-मुस्कराएँ, खिलखिलाएँ—बस फूल हिले, पत्तियाँ डोलीं। पेड़ों की शाखों ने हिल-हिलकर बाबू को शाबाशी देनी चाही पर बाबू की समझ में ही नहीं आया। उसने एक गुलाब को पकड़कर उसको उमेठा और झट से तोड़ लिया। गुलाब का फूल कराह उठा। बाबू को सुनायी नहीं दिया। उसने गुलाब का लाल रंग देखा, ख़ुशबू को सूँघा और अभी सूँघ ही रहा था कि क्या देखता है कि दो तितलियाँ एक गुलाबी और एक सतरंगी बग़ीचे के कोने में क्यारियों के फूलों पर सैर कर रही हैं—इधर से उधर, उधर से इधर। बाबू उन्हें पकड़ने को झपटा। लगभग दौड़ा। तितली तक पहुँचा। रास्ते में फूल हाथ से गिरा। फूल की सुध ही कहाँ थी। आँख तितली पर जो लगी थी। जब तक तितली के पास पहुँचा, तितली उड़कर दूसरी ओर। तितली की इतनी हिमाक़त कि बाबू से बचे। बाबू की पकड़ से गणित के सवाल नहीं बचे। तितली समझती है कि बाबू से बच जाएगी। बाबू कितना होशियार है, और मम्मी का कहना है कि कोशिश करने से सब कुछ हो सकता है। एक बार की कोशिश नहीं। लगातार कोशिश करने से सब कुछ हो सकता है। एक बार की कोशिश नहीं। लगातार कोशिश। बाबू कोशिश और मेहनत से ही पूरे बटा पूरे नम्बर लाया है, कोशिश और मेहनत से सब कुछ हो सकता है।
बात सच है। सच निकली। तितलियाँ बाबू से आँख मिचौली खेलीं। सारे बग़ीचे में डोलीं—बाबू को भी कभी दौड़ाया-थकाया। छकाया और पिदाया। पिदाया मायने कि हारने वाले को ख़ूब दौड़ाना। जान-बूझकर बाबू ने हिम्मत नहीं छोड़ी। पक्का इरादा। तितली अगर पकड़नी है तो पकड़नी ही है, बीच में छोड़ना नहीं। तितली से मुँह मोड़ना नहीं। तितली बहुत अकड़ी, अन्त में गई पकड़ी। गुलाबी तो उड़ गई थी। हाथ आयी सतरंगी। इन्द्रधनुष के सातों रंग ऊपर छिटके हुए। रंग-रंग की धारियाँ। धारियों की क़तार पर नन्हीं-नन्हीं बुन्दकियाँ। रंग-रंग की। प्यारे रंग। निराले रंग—निखरे-निखरे। चमके-चमके। दमके-दमके। बाबू भागा कितना दौड़ा, कितना-कितनी देर, तब गई तितली पकड़ी। बाबू की अंगुलियों में तितली कसमसायी, छटपटायी, घबरायी। फूल नहीं बोलते, पौधे नहीं बोलते, घास और पेड़ भी नहीं। बेचारा वह गुलाब भी नहीं जिसको बाबू ने पौधे से तोड़ा था। तितली के चक्कर में पैरों से रौंदा था। वह चिल्लाया, रोया, बाबू ने सुना नहीं। तितली रोयी, चिल्लायी, कसमसायी, घबरायी, बाबू ने सुना नहीं। तितली भी बोलती नहीं। बाबू ने तितली को किताब में बन्द किया। किताब बस्ते में, बस्ता बन्द।
बाबू ने स्कूल में अपने दोस्तों को बताया। कैसी सुन्दर तितली पकड़ी, कितनी मेहनत से। बस्ता खोला। किताब बस्ते से निकाली। किताब खुली। तितली न हिली, न डुली। उड़ी नहीं। वैसी ही पड़ी रही। चुपचाप। पंख सुन्दर, पर उड़ते में जितनी सुन्दर लगती थी वैसी अब नहीं लगी, बस ऐसी जैसे कोई चित्र हो, दोस्तों ने कहा ‘मर गई’।
अच्छा, किताब में मर गई होगी। घर जाकर बग़ीचे में उसी क्यारी में रख देगा तो जी उठेगी! बाबू ने तितली को सहेजा। जतन से रखा। घर लाया। स्कूल से लौटा। बरामदे में बस्ता रखा। किताब निकाली। तितली को उठाया। क्यारी तक लाकर घास पर रखा। तितली वैसी ही पड़ी रही। हिली नहीं, डुली नहीं। मर गई थी। जब तक बाबू ने पकड़ी थी, तब तक उड़ती थी। डाल-डाल डोलती थी। फूल-फूल घूमती थी। खेलती थी। बाबू के संग पकड़ा-पकड़ी। आँख मिचौली। तितली बेजान, बाबू उदास, गुलाब नाराज़। कल तोड़ा था एक सुन्दर फूल। पैरों तले रौंदा था। घास रूठी थी। उस पर जूते पहने कूदा था। चिड़िया नाराज़। गमलों के पौधे नाराज़। पौधों के फूल नाराज़। कोटर में बैठा तोता बोला— टें टें टें, घोंसलों में बैठे चिड़िया के नन्हें-नन्हें बच्चों ने उचक-उचककर बाबू को देखा बोले— चें, चें। पेड़ नहीं बोले। पेड़ों की डालियाँ नहीं बोलीं। घास और पत्तियाँ नहीं बोलीं क्योंकि वह बोल नहीं सकते—बोलते नहीं। तोते और चिड़िया, चिड़ियों के बच्चे बोलते हैं— टें टें, चीं चीं, चींची चें चें चें। वही बोलते, वही बोले। अगर हमारी तरह बोल सकते तो बोलते, शेम! शेम!! बाबू से कुट्टी। बाबू से कुट्टी तितली की। गुलाब की। फूल की। पौधे की। घास की, पेड़ की।
जब बाबू के पूरे बटा पूरे नम्बर आए तब सब कितने ख़ुश थे। बाबू के दोस्त थे। बाबू से आज नाराज़ हैं; कुट्टी किए बैठे हैं।
फूल-पौधे, घास-पत्ते, बेल और पेड़ों की, तितली की कुट्टी बाबू से हुई। तुमसे तो नहीं है? अच्छे बच्चों से किसी की कुट्टी नहीं होती। तुम भी तो अच्छे बच्चे हो। हो न?
मोहन राकेश की कहानी 'गिरगिट का सपना'