मैंने उन्हें कई तोहफे दिए। हमारे साथ के चार सालों में ऐसे बहुत मौक़े आते कि मुझे उन्हें तोहफे देने की ज़िद पकड़नी पड़ती लेकिन ऐसा बहुत कम होता कि मेरी तोहफा देने की ख्वाहिश वे पूरी करतीं। वह भी तब जब तोहफा बहुत मामूली सा हो, जो रास्ता चलते यूँ ही खरीद लिया जाता है। जैसे कोई किताब, कोई दुपट्टा, कोई की-रिंग, कोई पेन, नई डायरी, कोई स्टिकर।

एक बार जब सफर वापसी पर मैंने उन्हें एक रंगीन पत्थरों वाला सस्ता ब्रेसलेट और लकड़ी का कलमदान लाकर दिया तो उन्हें वह बहुत पसंद आया। ऐसी हल्की-फुल्की चीज़ें ही वे कबूल करती थीं। कभी कोई महंगी वस्तु देने की इजाजत उन्होनें दी नहीं। हमारे साथ के चार सालों मे उन्होनें कभी तोहफ़े की मांग नहीं की, न ही उन्होंने कभी मुझे भेंट किया। मुझे कभी ख़याल भी नहीं आया कि उनसे कोई तोहफा हासिल करूं।

हमारी मुहब्बत के आखिरी दिनों में उन्होंने मुझे एक तोहफा दिया। ये एक बहुत खूबसूरत सा काला कोट था जो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से, अपनी पसंद का, बिना मुझे बताए मेरे लिए खरीदा था। यह काफी महंगा भी मालूम पड़ता था। उसके कुछ दिनों बाद ही हमें अलग होना पड़ा। अलग क्या हुए, हुआ यूं कि उनकी बीमारी अचानक से बढ़ गई और आनन-फानन में उन्हें पुणे ले जाना पड़ा जहां उनकी मौत हो गई।

वे अपने घर पर अकेली औलाद थीं। उनके घर वाले कभी वापस नहीं आए इसलिए मुझे कभी पता भी ना चल सका कि मेरे दिए हुए मामूली उपहारों का क्या हुआ। उनका दिया हुआ कोट मेरे पास काफी अर्से तक रहा। कई बार सोचा कि उसे जला दूं लेकिन फिर टाल दिया। इस बार जब पहनने के इरादे से तलाशने लगा तो कहीं नहीं मिला। अम्मी से पूछा तो कहने लगीं मेरी अलमारी की सफाई में मिला था उन्हें लेकिन उसे कई जगह से चूहों ने कुतर दिया था इसलिए उन्होंने उसे रफू करके किसी ज़रूरतमंद को दान कर दिया है।

उसामा हमीद
अपने बारे में कुछ बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना खुद को खोज पाना.