टूट गया वह दर्पण निर्मम!
उसमें हँस दी मेरी छाया,
मुझमें रो दी ममता माया,
अश्रु-हास ने विश्व सजाया,
रहे खेलते आँखमिचौनी
प्रिय! जिसके परदे में ‘मैं’ ‘तुम’!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
अपने दो आकार बनाने,
दोनों का अभिसार दिखाने,
भूलों का संसार बसाने,
जो झिलमिल झिलमिल सा तुमने
हँस हँस दे डाला था निरुपम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
कैसा पतझर कैसा सावन,
कैसी मिलन विरह की उलझन,
कैसा पल-घड़ियोंमय जीवन,
कैसे निशि-दिन कैसे सुख-दुख
आज विश्व में तुम हो या तम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
किसमें देख सँवारूँ कुन्तल,
अंगराग पुलकों का मल-मल,
स्वप्नों से आँजूँ पलकें चल,
किस पर रीझूँ किस से रूठूँ,
भर लूँ किस छवि से अन्तरतम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!
आज कहाँ मेरा अपनापन,
तेरे छिपने का अवगुण्ठन,
मेरा बंधन तेरा साधन,
तुम मुझ में अपना सुख देखो
मैं तुम में अपना दुख प्रियतम!
टूट गया वह दर्पण निर्मम!