टूटी है कस्ती पर किनारे तक आई है
तुझसे जुदा उसने अपनी क़सम निभाई है
सब की ज़बान पे नारे हैं, कैसा माहौल है
दरख़्तों ने फूल न देने की क़सम खाइ है
दिल की ज़मीन शादाब कर दो, आ जाओ
माना ख़ुदा हो तुम पर ये कैसी ख़ुदाई है
हवा में आ रही है मुर्दों की बू, क़ब्रों से
मसअला गंभीर है, चल रही खुदाई है
मेरे जज़्बात के लिए लुग़ात नक़ाफी हैं
तेरी आंखों से सिख अपनी ज़बां बनाई है.