टूटी है कस्ती पर किनारे तक आई है
तुझसे जुदा उसने अपनी क़सम निभाई है

सब की ज़बान पे नारे हैं, कैसा माहौल है
दरख़्तों ने फूल न देने की क़सम खाइ है

दिल की ज़मीन शादाब कर दो, आ जाओ
माना ख़ुदा हो तुम पर ये कैसी ख़ुदाई है

हवा में आ रही है मुर्दों की बू, क़ब्रों से
मसअला गंभीर है, चल रही खुदाई है

मेरे जज़्बात के लिए लुग़ात नक़ाफी हैं
तेरी आंखों से सिख अपनी ज़बां बनाई है.

भारत भूषण
An adult who never grew.