“लोग घरों से ना निकलें
टाल दिए जाएँ सारे आयोजन
चेहरे ढँककर चलें सभी-जन।”
सरकारी ऐलान हुआ है-
हम सामाजिक-दूरी बनाना सीख लें
कि सबकी भागीदारी से ही
टाला जा सकेगा
यह मुश्किल-वक़्त।
पर ऐसे लोग भी हैं
आस-पास ही,
जिनके लिए चेतावनियाँ सहज हैं
बिल्कुल
सामान्य दिनों की तरह ही।
अख़बार के काले शब्दों में
झाँकने की आदत नहीं जिन्हें
और न ही जुगत है
टेलीविजन की रंगीन दुनिया
से परिचय पाने की।
पराए अपराध
हों जिनकी नियति के सूत्रधार,
उनके लिए
भीषणतम हादसा है ग़रीबी।
जिनके ख़ून-सने गारों पर
सजी हैं
इमारती-ईंटें,
उनके निर्वासन की तस्वीरें
सदी का सबसे विद्रूप सत्य है।
निश्चय ही
यह समय भी टल जाएगा।
पर महामारी के सारे आँकड़ें
रह जाएँगे अधूरे,
जब तक कि आँक नहीं ली जाती
क़ीमत एक रोटी की।
याद रहे-
मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है भूख।