Triveni by Gulzar from ‘Raat Pashmine Ki’
कोई चादर की तरह खींचे चला जाता है दरिया
कौन सोया है तले इसके जिसे ढूँढ रहे हैंडूबने वाले को भी चैन से सोने नहीं देते!
इक निवाले सी निगल जाती है ये नींद मुझे
रेशमी मोज़े निगल जाते हैं पाँव जैसेसुबह लगता है कि ताबूत से निकला हूँ अभी।
बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसेथान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख़्वाहिशें मुझ से।
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर मेंकभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!
वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न थाफटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
वह जिस से साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसनेकटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
पर्चियाँ बँट रही हैं गलियों में
अपने क़ातिल का इन्तख़ाब करोवक़्त ये सख़्त है चुनाव का।
चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही ख़ूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन मेंबाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी
चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और ग़ुल्लों से दिन भर खेला करता थाबहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!
अजीब कपड़ा दिया है मुझे सिलाने को
कि तूल खींचूँ अगर, अरज़ छूट जाता हैउघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी
मैं रहता इस तरफ़ हूँ यार की दीवार के लेकिन
मेरा साया अभी दीवार के उस पार गिरता हैबड़ी कच्ची सी सरहद एक अपने जिस्मोजाँ की है।
जिस्म और जाँ टटोल कर देखें
ये पिटारी भी खोल कर देखेंटूटा फूटा अगर ख़ुदा निकले!
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